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पमे.
बनवार
उत्सर्ग कर रहे हों, तथा सावधान न हों, या अपनी तरफ. उन्मुख न हों तो उनकी उस समय वन्दना न करनी चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
व्याक्षिप्तं च पराचीनं मा वन्दिष्टाः प्रमादिनम् ।
कुर्वन्तं सन्तमाहारं नीहारं चापि संयतम् ।। ऊपर यह बात लिखी जा चुकी है कि आगममें जो वन्दना करनेका समय बताया है उसी समयमें वह करनी चाहिये । किंतु वह समय कौनसा है सो बताते है:
वन्द्या दिनादौ गुर्वाद्या विधिवद्विहितक्रियैः।
मध्याह्ने स्तुतदेवैश्च सायं कृतप्रतिक्रमैः॥ ५४॥ गुरु-आचार्यादिकोंकी वन्दना साधुओंको दिनमें तीनवार करनी चाहिये, प्रातः काल, मध्याह्नकाल और सायंकाल । जिसमें से प्रातः काल तो वह प्रामातिक कर्मके अनन्तर, और मध्याह्नमें देव वन्दनाके अनन्तर तथा सायंकालमें प्रतिक्रमणके अनन्तर करनी चाहिये। इसके सिवाय नैमित्तिक कियाओंके पीछे भी उनकी वन्द ना करनी चाहिये । तथा वन्दना करनेकी विधि क्रियाकाण्डमें जैसी कुछ बताई है तदनुसार ही वह करनी चाहिये। आचार्य और शिष्यकी तथा दूसरे भी संयमियोंकी वन्दना और प्रतिवन्दनाका विषय विभाग करते हैं:
सर्वत्रापि क्रियारम्भे वन्दनाप्रतिवन्दने ।
गुरुशिष्यस्य साधूनां तथा मार्गादिदर्शने ॥ ५५ ॥ . सभी नित्य या नैमित्तिक क्रिया करते समय शिष्यको गुरुसे वन्दना करनी चाहिये । और गुरु-आचार्य को भी उसके बदलेमें शिष्यसे वन्दना करनी चाहिये । इसके सिवाय शेष मुनियोंको भी रास्ता आदिकमें दर्शन होजानेपर परस्परमें यथायोग्य वन्दना करनी चाहिये। तथा मार्गशब्दके साथ आदि शब्दजो दिया है उससे म. लोत्सर्गके अनन्तर या कायोत्सर्गके अनन्तर भी दर्शन होजानेपर एक दुसरेको आपसमें वन्दना करनी चाहिये ।
बध्याय
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