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बनगार
चतुर्विशतिस्तवके जो पूर्वोक्त नामस्तवादिक भेद गिनाये हैं उनमें वास्तविक स्तव मावस्तव ही है। क्योंकि उसमें गुणोंके द्वारा साक्षात केवलियोंका वर्णन किया जाता है। और वस्तुतः केवलियों और उनके गुणों में कोई अन्तर नहीं है। जैसा कि कहा भी है कि:
तं णिच्छएण जुजइ ण सरीरगुणेहिं हुंति केवलिणो।
केवलिगुणे थुणइ जो सो सच्चं केवली थुणइ ।। अर्थात् केवलियों के शारीरिक गुणोंका वर्णन करनेसे वस्तुतः केवलियोंका स्तवन नहीं समझा जाता, किंतु जो उनके गुणोंका वर्णन है वही सच्चा केवलियोंका स्तवन है।
ऊपर इस स्तनरूप आवश्यकके दो भेद बताये हैं, एक व्यवहार दूसरा निश्चय । इन दोनोंके फलमें क्या अंतर है उसको बताते हुए नित्य ही उसमें प्रवृत्त रहने की प्रेरणा करते हैं:
लोकोत्तराभ्युदयशफलां सृजन्त्या, पुण्यावली भगवतां व्यवहारनुत्या । चित्तं प्रसाद्य सुधियः परमार्थनुत्या,
स्तुत्ये नयन्तु लयमुत्तमबोधिसिद्धयै ॥ ४५ ॥ नामादिरूप पांच प्रकारके व्यवहार स्तवनसे उस पुण्यश्रेणीका संचय होता है जिसके कि उदयंस जीवोंको लोकोत्तर-अलौकिक अभ्युदयों-पूज्यता धन आज्ञा और ऐश्वर्य प्रभृतियों और अनेक प्रकारके सुखोंकी प्राप्ति हुआ करती है । तथा पारमार्थिक भावस्तवनले उत्तम मोक्षमार्ग-रत्नत्रयकी सिद्धि हुआ करती है। अत एव जो विवेकी इस मोक्षमार्गको पिद्ध करना चाइते हैं उन्हें भगवानकी व्यवहारस्तुति के द्वारा अपना चित्त नि. मल बनाकर उसे शुद्धचित्स्त्ररूपमें लीन बनाना चाहिये ।
भावार्थ-मुमुक्षुओंको अभीष्टसिद्धि-निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्ति शुद्ध आत्माका ध्यान किये बिना नहीं हो
अध्याय