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बनगार
इस प्रकार ध्यानोंका स्वरूप संक्षेपसे यहाँपर बताया है। इनमेंसे आदिके जो दोनों आत और रौद्र नाममिथ्या ध्यान वे तिर्यश्च नारक कुदेव या कुमानुषत्व आदि खोटी पर्यायोंके कारण हैं। तथा अंतके जो धर्ना और शक नामके सद्धथान हैं वे सुगतियों-सुदेवत्व सुमानुषत्व तथा अंतमें मोक्षको भी देवाले हैं। अत एव हे साधो । त इन दुध्योनोंको छोडकर निरंतर समीचीन ध्यानोंका ही प्रीतिपूर्वक सेवन कर । अन्यथा अनेक व्रत उ. । पवासादि क्रियाकाण्डमें सदा उद्यत रहते हुए भी तू सिद्धवधूको चिरकालकेलिये अपने ऊपरसे उत्कण्ठाशून्य बनाले गा. और अत्यंत भयंकर तथा क्रूर मकर मच्छ आदि जलजंतुओंके समान विविधक्लेशोंसे पूर्ण तथा जन्ममरणरूप मेंवरोंसे मरे हुए भव-समुद्रमें भ्रमण करता फिरेगा।
भावार्थ-मोक्षकी सिद्धि सयानके प्रसादसे ही हो सकती है अत एव मुमुक्षु साधुओंको उसमें अवश्य । प्रवृत्त होना चाहिये । अंतमें तपके विषय में उद्योतनादिक पांचो आराधनाओंका और उसके फलका वर्णन करते हैं:
यस्त्यक्त्वा विषयाभिलाषमभितो हिंसामपास्यंस्तप.स्यागूणों विशदे तदेकपरतां बिभ्रत्तदेवोद्गतिम् । नीत्वा तत्प्रणिधानजातपरमानन्दो विमुञ्चत्यसून,
स स्नात्वाऽभरमर्त्यशर्मलहरीष्वी परां निवृतिम् ॥ १.४॥ इन्द्रियों के विषयोंकी अभिलापाको छोडकर और द्रव्य तथा भाव दोनों ही प्रकारका हिंसाका भी सर्वथा परित्याग करके जो साधु पूर्वोक्त निर्मल तपश्चरण में उद्यत रहकर उसीमें रत रहता हुआ उसके अन्त दर्जेकी समुन्नतिको प्राप्त होजाता है, तथा उस निर्मल तपश्चरणमें रहनेवाली अव्यवच्छिन्न परिणति-एकतानताके नि. मित्तसे उत्पन्न हुए प्रकृष्ट प्रमोदको प्राप्त होकर प्राणों का परित्याग करता है वह साधु देव और मनुष्यगतिके सुखसमुद्र में अवगाहन करके अन्तमें परममुक्तिको प्राप्त होता है।
अध्याय