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बनगार
रागद्वेषरूप परिणत न होनेवाले उदासीन ज्ञानको जो प्राप्त नहीं हो सकता उस मुमुक्षुके पापकर्मका संचय और उससे प्राप्त होनेवाली दुर्गतियोंकी अपेक्षा पुण्यकर्म और उसके द्वारा स्वर्गादि पदोंका प्राप्त होना अच्छा ही है । क्योंकि जिस बन्ध-पुण्यकर्मके संचयसे अक्षय लक्ष्मीकी प्राप्ति हो सकती है वह पुण्यबन्ध भी मुनियों के लिये सह्य हो सकता है।
भावार्थ-जिस प्रकार निष्कपट भक्ति करनेवाला कोई सेवक अपने स्वामीके द्वारा पीडित होनेपर भी कालान्तरमें उससे यथेष्ट लक्ष्मी प्राप्त करनेकी इच्छासे उसकी भक्ति ही करता है, उसी प्रकार मुमुक्षुजन जबतक शुद्ध निजात्मस्वरूपका लाभ नहीं होता तबतक जिनेन्द्रदेवकी भक्तिमें निरत रहता और उनकी उपदिष्ट क्रियाओंका पालन किया करता है। जिससे कि उस पुण्यबन्धका संचय होता है जो कि मोक्षलक्ष्मीकी सिद्धि के साक्षात कारण-ध्यानके साधनमें समर्थ उत्तम संहननादि निमित्तोंको प्राप्त करा सकता है।
इस प्रकार जिसकी कर्तव्यता मले प्रकार सिद्ध करके दिखादी गई है उस आवश्यकका निरुक्तिद्वारा अवतार करते हुए लक्षण बताते हैं:
____ यद्वयाध्यादिवशेनापि क्रियतेऽक्षावशेन तत् ।
आवश्यकमवश्यस्य कर्माहोरात्रिकं मुनेः ॥ १६ ॥ जो इन्द्रियों के वश्य- अधीन नहीं होता उसको अवश्य कहते हैं । ऐसे संयमीके आहोरात्रिक-दिन और रातमें करने योग्य कामोंका ही नाम आवश्यक है । अत एव व्याधि आदिसे ग्रस्त हो जानेपर भी इन्द्रियों के वशमें न पडकर जो दिन और रातके काम मुनियों को करने ही चाहिये उन्हीको आवश्यक कहते हैं।
. ऐसे आवश्यककर्म कितने हैं उनके नाम बताते हैं:सामायिकं चतुर्विशतिस्तवो वंदना प्रतिक्रमणम् । प्रत्याख्यान कायोत्सर्गश्चावश्यकस्य षड़ भेदाः ।। १७॥
बध्याय
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