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अनगार
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अध्याय
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इसी प्रकार और भी समझलेनी चाहिये । भगवानके बैल हाथी आदि जो चिन्ह बताये हैं उनके द्वारा वर्णन करने को भी द्रव्यस्तव कहते हैं। यथा
गौर्गजोश्वः कपिः कोकः सरोजं स्वस्तिकः शशी । मकरः श्रीयुतो वृक्षो गण्डो महिषशूकरौ ॥ सेवा वज्रं मृगश्छागः पाठीनः कलशस्तथा । कच्छपश्चोत्पलं शंखो नागराजश्च केशरी ॥
इत्येतान्युक्तदेशेषु लाञ्छनानि प्रयोजयेत् ।
वृषभादि महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरोंके चिन्हों के नाम इस प्रकार हैं- बैल, हाथी, घोडा, बन्दर,
कोक, कमल, स्वस्तिक, चन्द्रमा, मकर, श्रीवृक्ष, गेण्डा, भैंसा, शूकर, सेही, वज्र, हिरण, बकरा, मत्स्य, कलश, कच्छप, श्वेत कमल, शंख, सर्प, सिंह ।
गुणशब्द के द्वारा रूपादिक तथा निःस्वेदत्वादिक दोनों ही लिये जाते हैं । अत एव इनके द्वारा भगवान् का वर्णन करना भी द्रव्यस्तव समझा जाता है । निःस्वेदत्वादिके द्वारा जैसे कि --
निःस्वेदत्वमनारतं विमलता संस्थानमाद्यं शुभं, तद्वत्संहननं भृशं सुरभिता सौरूप्यमुच्चैः परम् । सौलक्षण्यमनन्तवीर्यमुदितिः पथ्या प्रियाऽसृक् च यः, - शुभ्रं चातिशया दशेह सहजाः सम्वईदङ्गानुगाः ॥
अर्थात् भगवान् के शरीर में स्वभावसे ही दश अतिशय रहा करते हैं। १ उनके शरीरमें कभी भी पसीना नहीं आता, २ रे किसी भी प्रकारका मल नहीं होता. ३ रे उनका आकार चारो तरफसे समान रहा करता है, अर्थात् सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार शरीरका और उसके आङ्गोपाङ्गों का जितना प्रमाण रहना चाहिये, भगवान् के शरीर
१ -- यैः शांतरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, इत्यादि । इसी तरह चिन्ह और गुणादिकके विषय में भी समझना चाहिये ।
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