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बनगार
भावार्थ-जिन भगवान के अन्वर्थ नामोंसे उल्लेख करनेको नामस्तव कहते हैं। जैसा कि महापुराणके २५ वें पर्व में " श्रीमान स्वयंभवृषभः शंभवः शंभुरात्मभूः । " से लेकर "धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायकः ।" तक के श्लोकोंमें एक हजार आठ नामोंसे किया गया है। इसी तरह और भी आगमके अनुसार अन्वर्थताका विचार करना चाहिये । जैसा कि
ध्यानद्रुघणनिर्भिन्नघनघातिमहातरुः । अनन्तभवसंतानजयादासीरनन्तजित् ।। त्रैलोक्यनिर्जयावाप्तदुर्दर्पमति दुर्जयम् ।
मृत्युगजं विजित्यासीजिन मृत्युञ्जयो भवान् ॥ इत्यादि। इस नामस्तको व्यवहारनयकी अपेक्षासे जो कहा है उसका कारण यह है कि इसके द्वारा जिस परमात्माका वर्णन किया जाता है वह वस्तुत: वचनके अगोचर है। जैसा कि आगममें कहा भी है कि:
गोचरोऽपि गिरामासा त्वमवाग्गोचरो मतः ।
स्तोतुस्तथाप्यसंदिग्धं त्वत्तोभीष्टफलं भवेत् ॥ तथा,- संज्ञासंबद्वयावस्थाव्यतिरिक्ताभलात्मने ।
नमस्ते वीतसंज्ञाय नमः क्षायिकदृष्टये ॥ यह नामस्तव सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकारसे किया जाता है । चौवीस तीर्थंकरोंका या भूत भविष्यत् सभी तीर्थकरोंका समुदायरूपसे स्तवन करना इसको सामान्य नामस्तव कहते हैं। जैसे कि" थोस्सामि जिणवरिंदे" तथा "चउवीसं तित्थयरे" इत्यादि । भिन्न मित्र एक एक तीर्थकरका नाम लेकर निर्वचन करना इसको विशेष नामस्तव कहते हैं। जैसे कि “ ऋषभोऽजितनामाच " तथा "चन्द्रप्रभं चन्द्रमरीचिगौर" इत्यादि।
१- बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधावं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् ।
धातासि धीर शिवमार्गविधेर्विधान दुक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोसि ॥ इत्यादि और भी स्वयं समझलने चाहिये