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अनगार
भावार्थ-आत्माका रमण या गमन आत्माके सिवाय भिन्न स्थानमें नहीं हो सकता । ग्राम रमणीय और a निवास करने योग्य स्थान है, तथा निर्जनवन अमनोज्ञ और निवास करने के लिये अयोग्य स्थान है। इस तरहकी
कल्पना जो आत्माका अबलोकन नहीं कर पाते उन्ही के होती है। किन्तु जो आत्माका साक्षात् अनुभव करने वाले हैं उनके लिये तो रति और गतिका स्थान सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों और संकल्प विकलोसरहित निश्चल निज आत्मस्वरूप
यहांपर यह बात भी ध्यानमें रखनी चाहिये कि आत्मासे रति करना भी एक रागही है जो कि मोक्षका प्रतिबन्धक होनेसे मुमुक्षुओंको सहनीय नहीं होता । अतएव शुद्धनिश्चय नयको अपेक्षासे आत्माराम शब्दका अर्थ आत्मासे निवृत्ति करना चाहिये ।
कालसामायिकके अनुभवनका स्वरूप बताते हैं:-- नामूर्तत्वाद्धिमाद्यात्मा कालः किं तर्हि पुद्गलः ।
तथोपचर्यते मूर्तस्तस्य स्पृश्यो न जात्वहम् ॥ २५ ॥ निश्चय काल द्रव्य अमृत है, उसमें रूपरमगंध स्पर्श नहीं है। लोक जिसका काल शब्दसे व्यवहार करते हैं वह पुद्गल द्रव्य है। अत एव हेमन्त शिशिर वसंत या शीत ग्रीनवर्षा आदि मूर्त पुद्गलके ही स्वरूप हैं। मैं कदाचित मी इस मत पद लखरूप कालका विषय नहीं हो सकता ।क्योंकि मैं उससे सर्वथा विरुद्ध अमूही नहीं किन्तु निश्चय नयसे एक चित्स्वरूप
अध्याय
__इस प्रकार नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र और काल सामायिकका क्रमसे निरूपण करके भाव सामायिकका किस प्रकारसे अनुभवन करना चाहिये सो बताते हैं:
सर्वे वैभाविका भावा मत्तोन्ये तेष्वतःकथम् । चिच्चमत्कारमात्रात्मा प्रीत्यप्रीती तनोम्यहम् ॥ २६ ॥