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बनगार
वर्म
०५.
देनेमें कारणभूत काठ-खोडे या बेढीके समान हैं । अतएव दुःखस्थानमें ही रोक रखनेवाले इस जीवनकी क्या मैं आशा कर सकता हूं, कभी नहीं। तथा जो मृत्यु शरीररूपी जेलखानेके दुःखोंसे छुटाकर एक दो या तीन क्षणतकके लिये जीव के विश्राम दिलाने में कारण है उससे मय कैसा?
भावार्थ-संसारमें प्रायःकरके शरीरद्वाराही दुःखोंकी प्राप्ति हुआ करती है। और शरीरमें रोक रख. नेवाला आयुकर्म है। इस आयुकर्मके पूर्ण होनेपर विग्रह गतिमें एक या दो अथवा तीन क्षणतक औदारिक
और वैक्रियिक शरीर निमित्तक दुःख प्राप्त नहीं हुआ करते । अतएव दुःखके कारण जीवनकी आशा और उससे विश्रामके कारणभूत मरणसे भय करना व्यर्थ है।
लाभ और अलाभमें हर्ष विषाद करनेका निषेध करते हैं:
लाभे दैवयशःस्तम्भे कस्तोषः पुमधस्पदे ।
को विषादस्त्वलाभे मे दैवलाघवकारणे ॥ २९ ॥ यदि किसी व्यक्तिको लाभ-यथेष्ट विषयकी प्राप्ति हो जाती है तो उससे क्या समझा जाता है ? यही न कि इसके जन्मान्तरमें संचित पुण्य कर्मका उदय है। किंतु इससे उस पुरुषकी क्या महत्ता प्रकट होती है ? कुछ भी नहीं। उसके पौरुषकी तो उल्टी निंदा होती है। किन्तु जिस व्यक्तिको लाभ नहीं होता-जो मले प्रकार उपाय करनेपर भी यथेष्ट विषयको प्राप्त नहीं कर सकता उसकी जगतमें क्या कुछ निंदा होती है ? नहीं। बल्कि उस अलाममें कारण उसके जन्मान्तरमें संचित पाप कर्मकी निन्दा होती है। फलतः जो लाम, दैवका कीर्तिस्तम्भ
और पुरुषकी निन्दाका स्थान है, उसके होनेपर तो हर्ष कैसा ? एवं जिस अलामके होनेपर पुरुषको निन्दा न होकर देवकी क्षुद्रता ही प्रकट होती है, उसके होनेपर विषाद कैसा ? अतएव लामालाममें राग द्वेषको छोडकर मैं साम्य भाव ही रखता है।
इष्ट पदार्थ के संयोगको सुखका और वियोगको दुःखका, तथा अनिष्ट पदार्थ के संयोगको दुःखका औ
पध्याय