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अनगार
यह संसार एक प्रकारका उपवन है जिसमें कि मूढ पुरुषोंको प्रीति उत्पन्न करनेवाले विषय बहुलतासे पाये जाते हैं। किंतु सत्पुरुषोंकी बुद्धि इसमें दावानलका काम करती है। यदि वह ऐसा न करती होती तो फिर क्या कोई भी रत्नत्रयको प्राप्त करने और उसकी रक्षा तथा संचय करनेकेलिये प्रयत्न करता? नहीं, कोई भी नहीं करता।
भावार्थ-जिस प्रकार मनोहर भी उपवनमें रहनेवाले लोग दावाग्निके लगनेपर उसको प्रीतिका विषय न समझकर उस मार्गका ही अनुसरण करते हैं जिसपर कि चलनेसे शीघ्र ही उस वनसे मुक्ति हो सके। उसी प्रकार इस संसारमें रहनेवाले सत्पुरुष विवेकशक्तिके प्रकाशित होने पर इसको प्रीतिके अयोग्य समझकर मोक्षमार्गकी प्राप्ति रक्षा और वृद्धिकेलिये ही प्रयत्न किया करते हैं।
सम्पूर्ण सदाचारोंका शिरोमणि साम्यभाव है, अतएव इसीकी भावनामें आत्माको आसक्त रखनेका प्रयत्न करते हैं:--
. सर्वसत्त्वेषु समता सर्वेष्वाचरणेषु यत् ।
__ परमाचरणं प्रोक्तमतस्तामेव भावये ॥ ३४॥ पूर्वाचार्योंने कहा है कि सम्पूर्ण प्राणियों और सम्पूर्ण द्रव्योंमें रागद्वेषको छोडकर समभाव धारण करना समस्त आचरणोंमें उत्कृष्ट आचरण है। अतएव में और संकल्प विकल्पोको छोडकर अपने हृदय में इस साम्यभावको ही पुनः पुनः धारण करता हूं । इसीके अनुभवमें रत होता है।
इस पूर्वोक्त कथनसे यह निश्चय हो जाने पर कि भावसामायिकका अवश्य ही सेवन करना चाहिये, इस बातको प्रकट करते हैं कि इस सामायिक पर आरूढ आत्माका भाव कैसा होता है:
मैत्री मे सर्वभूतेषु वैरं मम न केनचित् ।
सर्वसावधविरतोस्मीति सामायिकं श्रयेत् ॥ ३५ ॥ सम्पूर्ण प्राणियोंमें मेरा मैत्रीभाव है, मैं चाहता हूं कि संसारका कोई भी जीव किसी भी प्रकारसे दुःखी
तपाचरणाम उताई। इसीक हो जानेपर
किभाव कैसा हात ही पुनः पुनः पूर्वोक्त कथनसे या सामायिक पर आ न केनचित् ।
अध्याय
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