________________
बनगार
मन्द रहा करते हैं। उसका चित्त हिंसादिक किसी भी अवद्यकर्ममें आसक्त नहीं रहा करता। अतएव वह उपचारसे महाव्रती-मुनिके समान माना जाता है। जैसा कि कहा भी है कि:
सामायियहि दु कदे समणो इव सावओ हवदि जसा ।
एदेण कारणेण दु बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥ अर्थात्-सामायिकके करनेसे श्रावक मुनिके समान हुआ करता है। अतएव मुमुक्षुओंको बहुधा सामायिक ही करनी चाहिये ।
इसके सिवाय अईन्त भगवान्के उपदिष्ट ग्यारह अङ्गका पाठी तथा निर्ग्रन्थ जिनलिङ्गका धारक अभव्य-द्रव्यलिङ्गी मुनिभी इस सामायिकके प्रसादसे ही उपरिम |वेयक तक-नव अनुदिशसे नीचेके विमानतक जाकर पहुंच सकता है। अतएव इस आश्चर्यकारी वैभवसे युक्त सामायिकमें भला ऐसा कौन सद्बुद्धि होगा जो कि आसक्त न हो ? अर्थात् सभीको इसमें प्रवृत्त होना चाहिये ।
इस प्रकार पडावश्यकोंमें सामायिकका वर्णन किया । अब नौ पद्योंमें चतुर्विशतिस्तवका व्याख्यान करते हैं। जिसमें सबसे पहले उसका लक्षण बताते हैं:
कीर्तनमहत्केवालजिनलोकोद्योतधर्मतर्थिकृताम् ।
भक्त्या वृषभादीनां यत्स चतुर्विंशतिस्तवः षोढा ॥ ३७॥ अहंत केवली और जिन तथा लोकका उद्योत करनेवाले एवं धर्मतीर्थक प्रवर्तक श्री ऋषभादिक चौवीस भगवान् के गुणोंका भक्तिपूर्वक आख्यान-गुणगान या प्रशंसा करनेको चतुर्विंशतिस्तव कहते हैं। यह छह प्रकारका होता है, नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भाव ।
जो ज्ञानावरणादि कर्मरूप अरि-शत्रुओंके तथा जन्म मरणरूप संसारके हन्ता-नाशकरनेवाले हैं। तथा जो पूजा वन्दना नमस्कार या सिद्धिगमनादिके लिये अह-योग्य हैं उनको अर्हन्त कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि.
अध्याय
प
.