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बनगार
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इन्द्रियजनित सुख दुःखका निराकरण करते हैं:
कृतं तृष्णानुषङ्गिण्या खसौख्यमृगतृष्णया।
खिये न दुःखे दुर्वारकर्मारिक्षययक्ष्माण॥ ३२ ॥ इन्द्रियजनित सुखोंको पाकर मैं राग नहीं करता, और दुःखोंके उपस्थित होनेपर मुझे किसी प्रकारका खेद भी नहीं होता । क्योंकि ये वैषयिक सुख मृगतृष्णा-मरीचिकाके समान तृष्णाके बढानेवाले हैं। और दुःख, जिनका वारण नहीं किया जा सकता ऐसे कर्मरूपी शत्रुओंका क्षय करने के लिये राजयक्ष्मा व्याधिके समान हैं।
भावार्थ-जंगलों में एक प्रकारकी चटीली भूमि हुआ करती है उसको मरीचिका कहते हैं। मध्यान्हके समय सूर्यकी किरणोंसे उस भूमिमें जलका भ्रम हो जाता है। पिपासाकुलित मृगगण जल समझकर वहां आते हैं किंतु जल न पाकर दुःखी होते हैं । इससे उनकी तृष्णा-पिपासा और भी बढ़ जाती है । ऐन्द्रिय सुख भी मरीचिकाके ही समान हैं। लोग सुख की इच्छासे इन्द्रियों के विषयों का सेवन करते हैं । किंतु उनमें सुख न पाकर दुःखका ही अनुभव किया करते हैं। जिससे उनकी तृष्णा-विषयोंके सेवन करनेकी इच्छा और भी बढजाती है। अत एव इन सुखोंसे मैं तो निहाल होगया। अर्थात्-इन सुखों-सुखामासोंको विकार हो जिनसे कि दुःख ही अच्छे हैं। क्योंकि वे कर्मोंके लिये क्षयरोग के समान हैं। जिस प्रकार क्षयरोगके होजानेपर बलिष्ठ भी मनुष्य अवधि पाकर मर जाता है उसी प्रकार इन दुःखोंके निमित्तसे उदयमें आकर दुर्वार भी असाता वेदनीय प्रभृति कर्म निर्णि हो जाते हैं। जिससे कि आत्माका कुछ उपकार ही होता है। इसी लिये मैं दुःखोंसे खिन्न नहीं होता और सुखोंसे प्रसन्न नहीं होता, इनमें समताही धारण करता हूं।
जो विचारशील हैं उनके लिये संसारके दुःसह दुःखोंका अनुभव रत्नत्रयकी प्रीतिका ही कारण हो जाता है, ऐसा उपदेश देते हैं:--
दवानलीयति न चेज्जन्मारामेत्र धीः सताम् । तर्हि रत्नत्रयं प्राप्तुं त्रातुं चेतुं यतेत कः ॥ ३३ ॥
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इन दुःखकि निमित्तसे उदासक होजानेपर बलिष्ठ भो
बध्याय
जोण हो जाते हैं।
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