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अनगार
अर्थात् जीवका स्वरूप रस रूप और गंधसे रहित अव्यक्त तथा चेतना गुणसे युक्त शब्द रहित अलिंग और किसी भी खास आकार-संस्थानसे रहित समझना चाहिये।
स्थापना सामायिककी भावनाका स्वरूप बताते हैं:यदियं स्मरयत्यर्चा न तदप्यस्मि किं पुनः ।
इयं तदस्यां सुस्थति धीरसुस्थेति वा न मे ॥ २२॥ जैसा चाहिये पैसेही प्रमाणसे युक्त यह सामने दीखती हुई मूर्ति मुझे जिस अदादिरूपका स्मरण करा रही है क्या मैं तत्स्वरूप हूं? नहीं । तो क्या मैं इस मूर्तिस्वरूपहूं? नहीं-सर्वथा नहीं। यही कारण है कि मेरा ज्ञान-साम्यानुभव न तो इस मूर्ति मले प्रकार ठहरा हुआ ही है, अथवा न इससे विपरीत ही है।
द्रव्यसामायिकके अनुभवका स्वरूप बताते हैं:साम्यागमज्ञतदेही तद्विपक्षौ च यादृशौ ।
तादृशौ स्तां परद्रव्ये को मे खद्रव्यवद्हः ॥ २३ ॥ . सामायिक शास्त्रका ज्ञाता अनुपयुक्त आत्मा और उसका शरीर-ज्ञायक शरीर ये दोनों, तथा इनसे विपक्षभाविनोआगमद्रव्य सामायिक और तद्वयतिरिक्त-कर्म नो कर्म ये दोनो जैसे कुछ शुभ या अशुभ हैं, रहें, मुझे इनसे क्या ? क्योंकि ये पर द्रव्य हैं । साम्यमावरूप परिणत मुझे इन में खद्रव्य की तरह अभिनिवेश किस तरह हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता।
अध्याय
१-जीविय मरणे लाहालाहे सजोयविप्पजोएय । बंधुअरि सुहृदुहे विय समदा सामाइयं णाम ॥ इत्यादि २--३--इनका स्वरूप पहल लिखाजाचुका है।