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मनगार
कि उसके अभीष्ट मोक्षकी सिद्धि हो सकती है तब उस के विरुद्ध कर्मबन्धकी कारण क्रियाओं का पालन करनेमें उसे प्रवृत्त क्यों होना चाहिये ? और क्या यह कथन आगमविरुद्ध नहीं है ? इसका उत्तर देते हैं:
सम्यगावश्यकविधेः फलं पुण्यास्रवोपि हि ।
प्रशस्ताध्यवसायोंहश्छित् किलेति मतः सताम् ॥ १४ ॥ ऐसा आगममें बतलाया है कि जिन प्रशस्त परिणामोंसे पुण्यकर्मका आस्रव और पापकर्मोंका उच्छेद होता है वे समीचीन आवश्यक विधानों के ही फल हैं। यही कारण है कि साधुजन इसके पालन करनेको स्वीकार करते हैं। जैसा कि कहा भी है कि:--
आवश्यकं न कर्तव्यं नष्फल्यादित्यसांप्रतम् । प्रशस्ताभ्यवसायस्य फलस्यात्रोपलब्धितः ।। प्रशस्ताध्यवसायेन संचितं कर्म नाश्यते ।
काष्ठं काष्टान्त केनेव दीप्यमानेन निश्चितम् ।। आवश्यकोंका पालन करना निष्फल है, यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि उन्हीके निमित्तसे शुभ परिणा. मॉकी सिद्धि हुआ करती है और जिस प्रकार अग्निसे काष्ठ भष्म हो जाता है उसी प्रकार उन शुभ परिणामोंसे पूर्वसंचित कर्म नष्ट हो जाया करते हैं। .
यहाँपर कोई फिर कह सकता है कि पुण्यबन्ध भी तो कर्मका बन्व ही है। अत एव पापबन्धकी तरह पुण्यबन्ध करने का भी अनुरोध मुमुक्षु के लिये क्यों होना चाहिये ? इसका भी उत्तर देते हैं:
मुमुक्षोः समयाकर्तुः पुण्यादभ्युदयो वरम् । न पापादुर्गतिः सह्यो बन्धोपि ह्यक्षयाश्रिये ॥ १५ ॥
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