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अनगार
३८.
काँसे रहित मोक्षकी मिद्धि हो सकती है, यद्वा अभ्युदयोंकी प्राप्ति और दतियोंकी निवृत्ति हो सकती उन अपनी सम्पूर्ण शक्तियोंको वह सदा पुष्ट किया करता है। और रत्नत्ररूप मार्गसे कभी विचलित नहीं होता. किंतु वास्तविक मोक्षमार्ग निज चित्स्वरूपका अवलोकन किया करता, और सदा अपने माहात्म्य-अचिन्त्यशक्ति विशेषका सर्वत्र प्रकाश किया करता है । इस प्रकार निश्चयसे देखा जाय तो में ही अष्टाङ्गसम्यग्दर्शन हूं। आत्माकी ज्ञान के विषयमें रति आदि रूप जो परिणति होती है उसको दिखाते हैं
सत्यान्यात्माशीरनुभाव्यानीयन्ति चैव यावदिदम् ।
ज्ञानं तदिहास्मि रतः संतुष्टः संततं तृप्तः ॥ ११ ॥ आत्मा-जीव, और आशी:-आगामी इष्ट पदार्थोकी अभिलाषा, तथा अनुभाव्य-जो कि वर्तमानमें अनुमवमें आरहे हो, ये तीनों ही पदार्थ सत्य हैं। और उतने ही हैं जितने कि इस ज्ञानने जाने हैं, अर्थात् जितना यह स्वयं संवेद्यमान ज्ञान है उतना ही आत्मा है और उतनी ही आशी है तथा अनुभवनीय पदार्थ भी उतना ही है । अत एव में इम ज्ञान में ही निरंतर रत-आसक्त रहता तथा संतोषको धारण कर तृप्त-सुखी होता हूं। अथवा इसको पाकर में संतुष्ट और सुखी होगया हूं।
मेदज्ञानके निमित्तसे ही कर्मोंका बन्धन टूटकर मोक्ष और अनंत सुखका लाम हो सकता है। इसी बातको बताते हैं।:--
क्रोधाद्यास्रवविनिवृत्तिनान्तरीयकतदात्मभेदविदः।
सिध्यति बन्धनिरोधस्ततः शिवं शं ततोऽनन्तम् ॥ १२॥ क्रोधादिक आसवाकी विशेषरूपमे निवृति-संवरके साथ साथ जो उन क्रोधादिकात्रवों और आत्माके भेदका ज्ञान होता है उसीसे कर्मोके वधका निरोध हुआ करता है। बन्धका उच्छेद हो जानेपर मोक्षकी प्राप्ति और उससे पुनः अनन्तसुखकी सिद्धि हुआ करती है।
अध्याय