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बनगार
धमे०
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जब ज्ञानीक नहीं होना तब उसको विषयों का मोक्ता कहना ही व्यर्थ-निष्फल है। अत एव आत्मज्ञानी जीव भोक्ता रहनेपर मी अभोक्ता ही माना जाता है।
ज्ञानी और अज्ञानीके कर्मबन्धकी विशेषता बताते हैं:नाबुद्धिपूर्वा गगाद्या जघन्यज्ञानिनोपि हि ।
बन्धायालं तथा बुद्धिपूर्वा अज्ञानिनो यथा ॥ ४॥ जिसको मध्यम या उत्कृष्ट आत्मज्ञान है उसकी तो बात ही क्या जघन्य दर्जेके आत्मज्ञानवाले पुरुषके मी सम्पूर्ण रागादिक आत्मदृष्टिपूर्वक ही हुआ करते हैं अत एव वे कर्मबन्ध करानेमें भी समर्थ नहीं हुआ करते । किंतु अज्ञानीके इसके विपरीत समी रागादिक आत्मदृष्टि रहित होते हैं अत एव उसके वे समी भाव कर्म बन्धके ही कारण हुआ करते हैं।
अनादि कालसे आत्माके साथ जो प्रमाद या अज्ञानजनित आचारणका सम्बन्ध चला आ रहा है उसपर अपशोच प्रकट करते है:
मत्प्रच्युत्य परेहमित्यवगमादाजन्म रज्यन् द्विषन्, प्रामिथ्यात्वमुखैश्चतुभिरपि तत्कर्माष्टधा बन्धयन् । मूर्तेर्मूर्तमहं तदुद्भवभवैर्भावैरसंचिन्मयै,
यो योजमिहाद्य यावदसदं ही मां न जात्वासदम् ॥५॥ चेतनाका चमत्कार मात्र है स्वभाव जिसका ऐसी अपनी आत्माको हाय मेंने कभी भी प्राप्त नहीं किया-निजस्वरूपकी तरफ मेरी अभी तक कभी दृष्टि ही नहीं गई, बल्कि उस आत्मस्वरूपसे विमुख होकर पर शरीरादिकमें ही मैं आत्मबुद्धि धारण किये रहा जड शरीगदिकों को ही " ये मैं हूं" ऐसा मानता रहा । हा ! इस अज्ञान के कारण ही मैं अनादिकालसे इष्ट पदार्थों गग और अनिष्ट विषयोंमें द्वेष करता रहा हूं। और
अध्याय
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