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अनगार
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मन्त्रद्वारा जिसकी सामर्थ-मारणशक्ति नष्ट करदी गई है ऐसे विषका भक्षण करनेपर भी जिस प्रकार मरण नहीं होता उसी तरह आत्मा और शरीरका भेद ज्ञान रहने पर विषयोंका सेवन करनेसे कोका बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार विना प्रीतिके पिया हुआ भी मद्य जिम तरह मद-नशा या वेहोशीको करनेवाला नहीं होता उसीप्रकार भेद ज्ञान द्वारा उत्पन्न हुए वैराग्यके अन्तरङ्गमें रहनेपर वह विषयोपभोग कम बन्धका कारण नहीं हो सकता।
भावार्थ--यहांपर भेदज्ञान और वैराग्य इन दोनोंकेलिये क्रमसे दो उदाहरण दिये हैं। इन उदाहरणांसे यह बात स्पष्ट है कि यदि अंतरङ्गमें भेदज्ञान और वैराग्य हो तो इन्द्रोयोंके विषयोंका सेवन करते हुए भी कर्मोंका बन्ध नहीं हो सकता।
ज्ञानी जीवका विषयोपभोग स्वरूपकी अपेक्षासे यद्यपि सद्रूप है तो भी उससे विशिष्ट फल उत्पन्न नहीं होता इसलिये उसे असद्रूप ही कहना चाहिये । इसी बातको दृष्टान्तद्वारा दृढ करते हैं:
ज्ञो भुञ्जानोपि नो भुङ्क्ते विषयांस्तत्फलात्य यात ।
यथा परप्रकरणे नृत्यन्नपि न नृत्यति ॥३॥ जिस प्रकार नृत्यकार अन्य पुरुषके विवाहादिक उत्सवके समय केवल शारीरिक चेष्टामात्रसे ही नृत्य करता है न कि उपयोग लगाकर । उसका उपयोग तो उस समय उधरसे विमुख ही रहता है । क्योंकि उसका वहां पर कोई फल भी नहीं होता । अत एव उसको नृत्य करते हुए भी उपयोगकी अपेक्षा से नृत्य नहीं करता है ऐसा ही कहना चाहिये । इसी प्रकार जो मनुष्य ज्ञानी है-आत्मस्वरूपके ज्ञानमें उपयुक्त है चह चेष्टामात्रसे यद्यपि इन्द्रयोंके विषयोंको भोगता है फिर भी उसे अभोक्ता ही समझना चाहिये । क्योंकि वास्तव में उसका विषयोंकी तरफ उपयोग नहीं रहता। "आज मैं धन्य हूं जो इस तरहके उत्कृष्ट भोगोंको भोग रहा हूं" ऐसा आमिमानिक रस और बुद्धिपूर्वक राग उसके नहीं पाया जाता । इसलिये उसके कर्मोंका बन्ध मी नहीं होता।
भावार्थ-कर्मोंका संचय बुद्धिपूर्वक रागादिकके द्वारा हुआ करता है। ज्ञानीके विषयोंके सेवन करने में बद्धिर्वक रागादि नहीं रहते । अत एव उसके कर्मोंका बन्ध भी नहीं होता । विषय सेवनका फल कर्मबन्ध है सो
अध्याय
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