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रहनेसे यह धर्म उद्भत नहीं हो सकता उस मान कषायको धिक्कार देते हैं -
अनगार
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हृत्सिन्धुर्विधिशिल्पिकल्पितकुलाद्यत्कर्षहर्षोर्मिभिः, किर्मीरः क्रियतां चिराय सुकृतां म्लानिस्तु घुमानिनाम् । मानस्यात्मभुवापि कुत्रचिदपि स्वोत्कर्षसंभावनं,
तद्धयेयेपि विधेश्वरेयमिति धिग्मानं पुमुल्लाविनम् ॥ ९ ॥ जो दैवरूपी शिल्पीके द्वारा रचेगये वंशरूप तप ऐश्वर्य प्रभृतिके अतिरेकसे जनित प्रमोदरूपी लहरियोंके द्वारा पुण्यात्माओं भाग्यहीन व्यक्तियोंके हृदयरूपी समुद्रको जीवनभरकलिये चित्रविचित्र बनादेता है । और जिसके कि निमित्तसे वास्ताविक पुंस्त्वके न रहते हुए भी अपनेको पुरुष समझनेवालोंको किसी विषयमें इस प्रकारसे अपने लिये अधिकताकी उत्प्रेक्षा होने लगती है कि मैं इस विषयमें उत्कृष्ट हूं। किंतु औरोंकी तो बात ही क्या खास अपने पुत्रके द्वारा भी कभी कभी उनको वह मान म्लान हो जाता है । इसी प्रकार जो पुरुषोंको अपने माहात्म्यसे भृष्ट करदिया करता है उस मानकषायको धिक्कार हो । अब मुझको चाहिये कि उस देवके लिये भी स्मरणीय -जहाँपर कि भाग्य भी अपना अनुष्ठान नहीं कर सकता उस विषयमें प्रवृत्ति करूं ।
अभिमानके निमित्तसे होनेवाली अनर्थपरम्पराओंको दिखाते हैं ...
गर्वप्रत्यग्नगकवलिते विश्वदीपे विवेक,त्वष्टर्युच्चैः स्फुरितदुरितं दोषमन्देहवृन्दैः ।
अध्याय
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१ विपरीत लक्षणाके अनुसार ऐसा अर्थ किया गया है।