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अनगार
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अध्याय
ज्ञात्वा भवन्मुदो भवमुदां तृप्तोऽमृते मोदते, तद्दातुंस्तिरयन् ग्रहानिव रविर्भातीतरान् ज्ञानदः ॥ ५३ ॥
अभयदानादिका फल जैसा कुछ आगम में बताया गया है वह प्रसिद्ध है। अभयदान के प्रसादसे साधुको सुख प्राप्त होता है उसको किसीसे भी भय नहीं हो सकता । किंतु यह फल उसको ज्यादेसे ज्यादे उसी एक भवकेलिये प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार औषधके दानसे रोगकी निवृत्तिरूप फल भी तभीतककेलिये मिल सकता है जब तक कि और कोई दूसरा रोग उत्पन्न नहीं होजाता । तथा आहारदानसे भी साधुको ज्यादे से ज्यादे उसी एक दिन केलिये औदर्यशान्तिलाभ फल मिल सकता है, अधिक नहीं किंतु तत्क्षण आनन्द उत्पन्न करनेवाले ज्ञान के प्रसाद से साधु संसार के सम्पूर्ण सुखोंमें तृप्तिलाभ कर कृतकृत्य होकर अमृतपद में जाकर विराजमान होजाता है और वहाँपर नित्यसुखसे आल्हादित रहा करता है । अत एव जिस प्रकार सूर्य शेष सम्पूर्ण नक्षत्रोंको अपने प्रकाशके द्वारा तिरोहित कर सबके ऊपर प्रकाशित होता है उसी प्रकार ज्ञानका दान करनेवाला साधु भी अपने माहात्म्यसे अभय भेषज और भोजन तीनोंहि प्रकारके दान करनेवालोंको अधःकृत कर देता है ।
भावार्थ - दान चार प्रकारका माना है, अभय, औषध, आहार, और ज्ञान । इनमेंसे आदिकी तीन वस्तुएं यदि साधुओं को दी जांय तो उनसे उनको उतना लाभ नहीं हो सकता जितना कि ज्ञानके प्रसादस हो सकता है। क्योंकि आत्माका वास्तविक कल्याण ज्ञानहीसे हो सकता है। अतएव ज्ञानके दानका माहात्म्य भी इतर दानोंके माहात्म्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट ही माना गया है ।
क्रमप्राप्त आकिंचन्य धर्मका स्वरूप बतानेके अभिप्रायसे उसका पालन करनेवालोंको जो उत्कृष्ट तथा अद्भुत फल प्राप्त हुआ करता है उसको प्रकट करते हैं ।
अकिञ्चनोऽहमित्यस्मिन् पध्यक्षुण्णचरे चरन् । तददृष्टचरं ज्योतिः पश्यत्यानन्दनिर्भरम् ॥ ५४ ॥
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