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बनगार
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चारो गतियों अथवा उसके अनेक भेदोंमें जीवके इतस्ततः पर्यटन करनेको ही संसार कहते हैं । यह पांच प्रकारका हैं-द्रव्य क्षेत्र काल भव भाव । इस परिभ्रमणका मूल कारण कर्मबन्ध है किंतु कर्मबन्धका भी मूल कारण मिथ्यात्रिक-मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र है । अत एव इस मिथ्यात्रिकसे निवृत्त होने
और इसके विरुद्ध मोक्षके उपाय रत्नत्रयमें प्रवृत्त होनेको ही उपचरित सम्यक् चारित्र कहते हैं । इस उपचरित सम्यक् चारित्रमें मायाचारको छोडकर उद्योग करने तथा सदा उपयुक्त-तल्लीन रहने का ही नाम तप है। वह दो प्रकारका माना है-एक अन्तरङ्ग और दूसरा बाह्य । प्रायाश्चत्त, विनय, चैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान इनको अन्तरङ्ग तप कहते हैं । और अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन तथा कायक्लेश इनको बाह्य तप कहते हैं। इनमें अन्तरङ्ग तपकी सिद्धि और वृद्धिका कारण बाह्य तप है । अत एव मुमु. क्षुओंको अभ्यन्तर तपको स्थिर रखनेके लिये अथवा उसको बढाते रहनेके लिये बाह्य तपका आचरण करते ही रहना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि- “ बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम्"।
बाह्य तप कारणरूप है अत एव उसका ही वर्णन सबसे पहले करना चाहते हैं। किंतु विशेष वर्णन करनेके पूर्व इस बातके लिये युक्ति उपस्थित करते हैं कि उसके उत्तर भेद अनशनादिक तप क्यों हैं ?
देहाक्षतपनात्कर्मदहनादान्तरस्य च । .
तपसो वृद्धिहेतुत्वात् स्याचपोऽनशनादिकम् ॥ ५॥ अनशन अवमौदर्य आदिक तप इसलिये हैं कि इनके होनेपर शरीर इन्द्रियां उद्रिक नहीं हो सकती किंतु कुश हो जाती हैं। दूसरे इनके निमित्तसे संपूर्ण अशुभ कर्म अग्निके द्वारा इन्धनकी तरह भस्मसात् हो जाते हैं । तीसरे अभ्यन्तर प्रायश्चित्त आदि तपोंके बढानेमें ये कारण हैं।
. अनशनादिकको बाह्य तप माना है। जिसमेंसे उनका तप होना तो युक्तिपूर्वक सिद्ध किया । अब उनके बाह्यत्वके लिये भी युक्ति उपस्थित करते हैं:--