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अनगार
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है उसको पार्यस्थ कहते हैं । जो वैद्यक मन्त्र अथवा ज्योतिषके द्वारा आजीविका करनेवाले हैं और राजा आदि. कोंकी सेवा किया करते हैं उनको संसक्त कहते हैं । जिसने स्वेच्छाचारी होकर गुरुकुलका परित्याग करदिया है
और जो एकाकी ही उच्छंखल विहार करता हुआ जिनवचनोंक निन्दा करता फिरता है उसको स्वच्छन्द अथवा मृगचारी कहते हैं । जो जिनवचनोंसे अनभिन्न है और जिसने चारित्रका भार अपने ऊपरस उतार दिया है तथा ज्ञान और आचरणसे भ्रष्ट होकर जो इन्द्रियोंके विषयों में अलस बना रहता है उसको अवसन्न कहते हैं। जिसकी आत्मा क्रोधादि कषायोंसे कलुषित रहती है और जो पंच महावत अट्ठाईस मूलगुण तथा शीलके उत्तर भेदोंसे भी रहित है, जो संघका अनुवर्तन नहीं करता उसको कुशील कहते हैं । परिहार प्रायश्चित्तका लक्षण और उसके भेद बताते हैं:
विधिवहगत्यजनं परिहारो निजगणानुपस्थानम् ।
सपरगणोपस्थानं पारश्चिकमित्ययं त्रिविधः ॥ ५६ ॥ शास्त्रमें जैसा कि विधान है उसके अनुसार एक दिन दो दिन पक्ष महीना आदिके विभागसे अपराधीको दूर करदेनेका नाम परिहार प्रायश्चित्त है । यह तीन प्रकारका होता है:-निजगणानुपस्थान, सपरगणोपस्थान, और पारश्चिक।
अपने संघसे निकाल देनेको निजगणानुपस्थान कहते हैं। जो साधु नौ या दश पूर्व ज्ञानका और आदिके तीन उत्तम संहननोंका धारक है, परीषहोंको जीतनेवाला, दृढकर्मा, धीर, वीर ओर संसारसे भीरु है। किन्तु प्रमादसे वह अन्य मुनियोंके छात्रों या ऋषियोंको अथवा दूसरे पाखंडियोंकी चेतन अचेतन द्रव्यको यद्वा परस्त्रीको चुरानमें प्रवृत्ति करता है, मुनियोंके ऊपर प्रहार करता है, या ऐसे ही किसी अन्य विरुद्ध आचरणमें प्रवृत्त होता है तो उ. सको निजगणानुपस्थान नामका प्रायश्चित्त दिया जाता है।
इस प्रायश्चित्तके अनुसार वह दोषी मुनियोंके आश्रमसे कमसे कम ३२ दण्डकी दूरीपर विहार करता
अध्याय