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बनगार
धर्म
साधारण मंगल ही नहीं किन्तु मंगलोंका भी मंमल-परममंगल कहना चाहिये । क्योंकि सम्पूर्ण लौकिक कल्यापोंके सिद्ध होने में भी यह प्रधान कारण है। जैसा कहा भी है कि:
एसो पंचणमोयारो सव्वपावप्पणासणो।
___ मंगलाणं च सव्वसि पढम होइ मंगलं. ॥ और इसीलिये इसके वाचिक या मानसिक जपको उत्कृष्ट स्वाध्याय तप समझना चाहिये।।
भावार्थ-मंगल शब्दके निरुक्तिकी अपेक्षा दो अर्थ होते हैं, एक तो यह कि जिसके निमित्तसे म-पाप माल जाय । दमरा यह कि जिसके द्वारा मङ्ग-अभ्युदयकी सिद्धि हो। ये दोनों ही अर्थ पञ्च नमस्कार मंत्रमें पूर्णतया घटित होते हैं, अत एव उसको परमसंगल कहना चाहिये । इसीलिये इसके जप करनेको उत्कृष्ट स्वाध्याय नामका अन्तरङ्ग तप समझना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
___स्वाध्यायः परमस्तावज्जपः पंचनमस्कृतेः ।
पठनं वा जिनन्द्रोक्तशास्त्रस्यकामचेतसा ।। अरिहंत भगवान के ध्यान लगे हुए मुमुक्षुका आशीर्वचनम्प अथवा शान्त्यादिवचनरूप मंगल भी कल्यापका साधक हुआ करता है, इसी बातको प्रकट करते है:
अहंत्यानपरस्याहन शं वो दिश्यात्सदास्तु वः।
शान्तिरित्यादिरूपोपि स्वाध्याय: श्रेयसे मतः ॥ १२ ॥ बोला प्रधानतया निरंतर अहंतके ध्यान में ही लीन रहता है उसके " अर्हन शं वो दिश्यात." अर्थत अहंत भगवान् तुझारा कल्याण करें, तथा "सदास्तु वः शान्तिः " अर्थात् तुझे सदा शान्ति बनी रहे. इत्यादि वचनोंको भी स्वाध्याय ही कहना चाहिये । क्योंकि पूर्वाचार्योंने इसके द्वारा मी कल्याण-पुण्यकी और परम्परासे मोवी सिद्धि मानी । शान्तिका स्वरूप इस प्रकार कहा है:
सुखतद्धतुसंप्राति खतहेतुवारणम् । तद्धतुहेतवश्वान्यदपीक शान्तिरिष्यते ॥
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अध्याय
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