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अनगार
करनेको थिति, और अभ्यास करनेको भावना कहते हैं। काय और कपायोंके भलेप्रकार कृश करनेका नाम सल्लेखना है। दिशा शब्दका अर्थ एलाचार्य होता है। अपने गणसे क्षमा करानेको शान्ति कहते हैं। सूत्रके अनुसार गणको शिक्षा देनेका नाम शिष्टि है। दूसरे गण या संघमें चले जानेको चर्या, और अपनेको जो रत्नत्रयकी शुद्धि तथा समाविमरणका सम्पादन करा सके ऐसे आचार्य के अन्वेषण करनेको मार्गणा करते है। सुस्थितनाम आचार्यका है; क्योंकि वे अपने प्रयोजन और परोपकारके करनेमें भले प्रकार स्थित रहते हैं। आचार्यको आत्मसमर्पण करनेका नाम उपसर्पण या उपसंपत् है । गण या परिचारक आदिके परीक्षणको परीक्षा, और आराधनाकी भलेप्रकार सिद्धि हो सके इसकेलिये उत्तम देश राज्य आदिके ढूंढनको निरूपण कहते हैं। इसपर मुझे अनुग्रह करना चाहिये या नहीं? इस प्रकार संघको उद्देश करके पूछने कानाम प्रश्न है। संबसे पुनः पूछकर उसकी अनुमतिसे किसी एक क्षपकके स्वीकार करनेको प्रतिप्रच्छथैक संग्रह कहते हैं। आचार्यके सम्मुख अपने दोपोंके निवेदन करनेको गुरोरालोचना कहते हैं। गुण और दोष दोनोंके ही आलोचन करनेको गु. णदोष कहते हैं। शय्या शब्दका अर्थ वसति और संस्तर शब्दका अर्थ प्रस्तर होता है। आग' धना करनेवालकी समाधिमे सहायता करनेवालों के समूहको निर्यापकपरिग्रह कहते हैं। अन्तिम आहार प्रकट करनेको प्रकाशन, क्रमसे आहार छोडनेको हानि, और तीन प्रकारके आहारके त्याग करनेको प्रत्याख्यान कहते हैं । अचार्यादिकोंसे क्षमा ग्रहण करानेको क्षमापण, और अपनेसे जो मरोंके अपराध हुए हों उनके क्षमा करनेको क्षमण कहते हैं। निर्यापक आचार्य द्वारा आरावकको शिक्षा दिये जाने का नाम अनु. शिष्टि है । दुःखसे अभिभूत होकर मुञ्छित हो जानेपा चेतना प्राप्त करानेको सारणा, और धर्मादिका उपदेश देकर दुःख दूर करनेको कवच कहते हैं। जीवन तथा मरण आदिमें रागद्वेष न करनेको समता, एकाग्रचि. न्तानिरोधको ध्यान, तथा कपायानुराञ्जत योग प्रवृत्तिको लेश्या, और आराधनाके साध्यको फल कहते हैं । आराधकके शरीरका त्याग होना इसका नाम क्षपकदेहोज्झन है।
अध्याय
इस प्रकार भक्तप्रत्याख्यानमरणम अइसे लेकर शरीरत्याग तक ४० भाव हुआ करते हैं। शेष दो प्रकारके मरणाम जो अन्तर है वह ऊपर लिखा जा चुका है।