________________
बनगार
७२
ये पांच प्रकारकी दुर्भावनाएं हैं जिनके कि करनेमे तपस्वी परलोकमें कुदेव होता है। इसके विरुद्ध मोक्षमार्गकी साधक पांच समीचीन भावनाएं हैं जिनका कि निर्देश ऊपर किया जाचुका है। फिर भी उनका स्वरूप संक्षपमें इस प्रकार है:
इन्द्रियोंका स्वामी मन है। मनकी प्रेरणासे ही इन्द्रियां अपने विषयों में प्रवृत्त हुआ करती हैं। इसलिये यदि इन्द्रियोंको जीतना हो तो पहले मनको वशमें करना चाहिये । मनके वशमें होजानेपर इन्द्रियां स्वयं ही वशीभूत होजाती हैं। और वह वशीभूत मन समाधिका कारण बनता है। अत एव अनेक प्रकारसे मन और इन्द्रियों के वश करते रहने के प्रयत्नका ही नाम तपोभावना है । ज्ञान दर्शन चारित्र और तप इन चारो आराधनाओंकी सिद्धि आगमका अभ्यास करनेसे ही होसकती है और इसके निमित्तसे ही मुमुक्षु साधु असंल्किष्ट होकर सुखका भोग कर सकता है । अत एव पुन: पुनः आगमके अभ्यास करनेको श्रुतभावना कहते हैं। दिन में अथवा रातमें अत्यंत भयानकरूप रखकर देवोंके द्वारा डरायेजानेपर भी भयके वश न होना तथा उत्कृष्ट साहसका रखना इसको सत्व भावना कहते हैं। संसार शरीर और भोगोंसे विरक्त रहकर मोक्षमार्गमें रत रहनेको एकत्व भावना कहते हैं। जिसको देखकर साधारण शक्तिवाले लोगोंको भय उत्पन्न होने लगे एवं जिसका वेग मार्गको दुर्धर बनानेवाला है ऐसी परीपहोंकी सम्पूर्ण सेना समस्त उपसगों के साथ साथ भी आकर यदि उपस्थित हो तो भी आरब्ध मोक्षमार्गमें निराकुल रहना तथा सम्पूर्ण मनोरथोंके सिद्ध करनेवाले धैर्यको न छोडना धृति भावना कही जाती है। भक्त प्रत्याख्यानका लक्षण और सल्लेखनाके जघन्य तथा उत्कृष्ट कालका प्रमाण बताते हैं:
यस्मिन् समाधये स्वान्यवैयावृत्त्यमपेक्ष्यते ।
तद्वादशाब्दानीपेन्तर्मुहूर्तं चाशनोञ्झनम् ॥ १.१॥ समाधिकी इच्छा रखनेवाले साधुओंको भक्तप्रत्याख्यान मरणमें रत्नत्रयको एकाग्र रखनेकेलिये स्ववै. यावृत्य और परवैयावृत्य दोनों ही की अपेक्षा रहा करती है । तथा इस मरणका जघन्यकाल अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट बारह वर्षका है।
बध्याय