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नगार
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अध्याय
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मूर्ति प्रश्रयनिर्मितामिव दधतत्किंचिदुन्मुद्रय, - त्यात्मस्थान कृती यतोऽरिजयिनां प्राप्नोति रेखां घुरि ॥ ९० ॥
स्तुतिरूप स्वाध्यायमें प्रवृत्त हुए मुमुक्षुकी बुद्धि - मनःप्रवृत्ति, अत्यंत निर्मल और परिपूर्ण ज्ञानके भंडार श्री अहं तदेव के अद्भुत आश्चर्योत्पादक गुणों के समूहमें अभिनिवेश के कारण व्यग्र रहा करती है, और इसीलिये उसकी वाणी-वचनप्रवृत्ति, भगवान् के उन गुणोंके प्रकट होने से उद्भट तथा नवीन नवीन उक्तियों से मधुर स्तोत्रोंके स्फुट उद्वारों से भरी हुई रहती है, एवं उसकी शरीर यष्टि ऐसी मालुम पडने लगती है मानों साक्षात् विनयकी ही बनी हुई हो। इस प्रकार उसके मन वचन और काय तीनों ही पूर्णज्ञानघन भगवान् के गुणोंमें लीन रहते हैं । अत ra as कृती अपनी आत्मामें स्थित अनिर्वचनीय वीर्य - अनन्तशक्तिको प्रकट कर देता और अंतमें मोहके विजेता साधुओं के अग्रपदको प्राप्त कर लेता है ।
भावार्थ -- स्तुतिरूप स्वाध्याय करनेवालेकी बुद्धि उक्ति और शारीरिक प्रवृति भगवान् के निर्मल गुणों की तरफ ही लगी रहती है। अत एव अंतमें वह उसी रूपको प्राप्त करलेता है।
पंचनमस्कार मंत्र को परममंगल और उसके जप करनेको उत्कृष्ट स्वाध्याय बताते हैं:--
मलमखिलमुपास्त्या गालयत्यङ्गिनां य - च्छिवफलमपि मङ्गं लाति यत्तत्परार्घ्यम् ।
परमपुरुषमंत्रो मङ्गलं मङ्गलानां,
श्रुतपठनतपस्यानुत्तरा तज्जपः स्यात् ॥ ९१ ॥
पैंतीस अक्षर के अपराजित मंत्र को ही परमपुरुष मंत्र कहते हैं। इसकी उपासना-आराधना-मन या वचन के द्वारा जप करने से संपूर्ण पाप गल जाते हैं । तथा इससे मोक्षरूप अभ्युदयकी भी प्राप्ति होती है । अत एव इसके
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