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अनगार
आर्यता कुलीनता आदि प्रशस्त गुणोंसे युक्त इस उत्तम मनुष्य पयायका सार-उपादेय भाग अहद्रूप. संपत्ति-आचलक्यादिस्वरूप जिनलिनका धारण करना ही है । आर इस जिनलिङ्गके धारण करनेका भी सारभूत फल जिनागमकी शिक्षा प्राप्त करना है । तथा शिक्षाका भी सार यह विनय है । क्योंकि इसके होने पर ही सत्पुरुषोंके लिये भी स्पृहणीय समाधिप्रभृति गुण स्फुरायमान होते हैं।
विनयरहित पुरुषकी शिक्षा भी निष्फल है; इस बातको बताते हैं:
शिक्षाहीनस्य नटवल्लिङ्गमात्मविडम्बनम् । . अविनीतस्य शिक्षापि खलमैत्रीव किंफला ॥ ६३ ॥
जिस पुरुषने नृत्य करने की शिक्षा प्राप्त नहीं की है वह यदि नृत्य करने में प्रवृत्त हो तो उपहासका ही पात्र हो सकता है । इसी प्रकार जिसने जिनागमकी शिक्षा प्राप्त नहीं की है उसका जिनलिङ्ग धारण करना भी उपहासका ही विषय हो सकता है । इसी तरह उस मनुष्यकी शिक्षा भी जो कि विनयसे रहित हैं, निरर्थक अथवा दुर्जन पुरुषोंकी मित्रताके समान अनिष्ट फल उत्पन्न करनेवाली ही हो सकती है। विनयके तत्वार्थ सूत्रमें चार भेद और आचारशास्त्रोंमें पांच भेद बताये हैं उन्हीका यहांपर उपदेश देते हैं:
दर्शनज्ञानचारित्रगोचरश्चोपचारिकः । चतुर्धा विनयोऽवाचि पञ्चमोपि तपोगतः ॥ ६४॥
अध्याय
तत्त्वार्थका निरूपण करनेवाले आचार्योंने विनयके चार भेद बताये हैं-दर्शनविनय ज्ञानविनय चारित्र विनय और औपचारिक विनय । किन्तु आचारादि शास्त्रोंका विचार करनेवालोंने तपोविनय नामका पांचवां भेद भी बताया है। यथाः