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अनगार
१-गुरुजनाको आता हुआ मालुम होते ही अपने आसनसे उठकर खडे होजाना चाहिये । २-उनके योग्य पुस्तकादि वस्तुओंका दान करना चाहिये । ३-उनके सामने उच्चासनपर बैठना आदिन चाहये । ४-यदि उनके साथ चलनेका अवसर पडे तो उनके पीछे पीछे नम्रता और आदर के साथ गमन करना चाहिये । ५-सिंहा। सन या शयनीयादि स्थानों को तयार कर देना । ६-उनको पगाम-नमस्कारादि करना। ७-तथा उनके काल भाव और शरीरके योग्य कार्यों को करना। कारयोग्य कार्यों को करना. जसे कि गर्मीमें ठंडी और शर्दी में 'उष्णता लानेवाली क्रिया करना, मात्र योग्य जैप-उने करी मेडनेका अवसर हो तो उनके अभिप्राय और आज्ञा. नुसार वहाँ बाना आना आदि । शरीर योग्य जो कि उनके शरीर और बल के अनुरूप उनका मर्दन करना। - यहाँपर च शब्द समुच्चयायक है । अत एर इन सभी बातों को गुरुओं के विषयों करना उचित है । तथा यद्यपि यहाँपर शारीरिक विनयके ये मात प्रकार ही बनाये हैं, किंतु आदरकेलिये उनके संमुख जाना आदि और भी भेद होते हैं, सो उनका भी यहांपर इति शब्दसे समावेश करलेना चाहिये । ..... औपचारिक विनयके वाचिक मेदोंको बताते हैं:
हितं मितं परिमितं वचः सूत्रानुवाचि च।
ब्रुवन् पूज्यांश्चतुर्भेदं वाचिकं विनयं भजेत् ॥ ७२ ॥ आराध्य गुरुजनोंकी वचन के द्वारा चार पकारमे गिनय करना चाहिये । अर्थात् उनके सम्मुख या उनके लिये ऐसे वचन बोलने चाहिये जो चार विशेषणों से युक्त हों । यथा-हित-जोक कल्याण के कारण धर्मका विधायक हो । मित-जिसमें अक्षगेका प्रमाण तो कम हो किन्तु महान् अर्थ भरा हुआ हो । परिमित-जो कारण युक्त हो । और सूत्रानुवाचि -अर्थात् जो आगम के अर्थपे विरुद्ध न हो।
• यहांपर च शब्दका जो ग्रहण किया है उससे नि य नैमित्तिक पूजनादिके अवपरपर बोले हुए वचनोंका समावेश करलेना चाहिये । तथा उन वचनोंका भी जो कि वाणिज्यादिका विधान नहीं करते ।
अध्याय
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