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खनगार
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अध्याय
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आराधना शब्द के साथ आयेहुए आदिशब्दसे किन किन विषयों को लेना चाहिये सो स्पष्ट करते हैं:
द्वारं यः सुगतेर्गणेशगणयोर्यः कार्मणं यस्तपो, - वृत्तज्ञानऋजुत्वमार्दवयशः सौचित्यरत्नार्णवः ।
यः संक्लेशदवाम्बुदः श्रुतगुरूद्योतकदीपश्च यः,
क्षेप्यो विनयः परं जगदिनाज्ञापारवश्येन चेत् ॥ ७७ ॥
मुमुक्षुओंको विनयतपका परित्याग करना कदाचित्मी उचित नहीं है; बल्कि जो तीन लोकके अधीश भगवान् अदेवकी आज्ञामें रहकर अपनी आत्माका हित सिद्ध करना चाहते हैं उन साधुओंको इसका अवश्य ही पालन करना चाहिये । क्योंकि यह तप समस्त कर्मों के क्षयका कारण होनेसे मोक्षका और प्रचुर पुण्यास्रवका कारण होनेसे स्वर्गका द्वार है, तथा संघ और संघ के स्वामीको वश करनेके लिये वशीकरण मंत्र के समान है । तप चारित्र ज्ञान सरलता मार्दव यश और सौचित्यं आदि अनेक गुणरूप रत्नोंको उत्पन्न करनेके लिये रत्नाकर - समुद्र के समान है। राग द्वेष प्रभृति संक्लेश परिणामरूपी दावानलको शांत करनेकेलिये मेघ के समान है, और आचार शास्त्र में बताये हुए क्रमज्ञान तथा कल्पज्ञानको एवं सदाम्नायके उपदेष्टा गुरुओंको प्रकाशित करनेकेलिये अद्वितीय दीपकके समान है ।
वैयावृत्त्य तपका निरुक्तिसिद्ध लक्षण बताते हुए मुमुक्षुओं को उसका पालन करनेकेलिये प्रेरित करते हैं:
क्लेशसंक्लेशनाशायाचार्यादिदशकस्य यः ।
व्यावृत्तस्तस्य यत्कर्म तद्वैयावृत्त्यमाचरेत् ॥ ७८ ॥
आचार्य उपाध्याय तपस्वी शैक्ष ग्लान गण कुल संघ साधु और मनोज्ञ इन दश प्रकार के मुनियों के १ - - गुरु आदिकोंका अपने ऊपरसे वैमनस्यं दूर होने और अनुग्रह प्राप्त होनेको सौचित्य कहते हैं ।
धर्म ०
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