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अनगार
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अध्याय
तपोवनका स्वरूप बताते हैं :-- यथोक्तमावश्यकमावहन् सहन, परीषहानग्रगुणेषु चोत्सहन् । भजंस्तपोवृद्धतपांस्य हेलयन्, तपोलघूनेति तपोविनीतताम् ॥ ७५ ॥
व्याधि आदिके वश होजानेपर भी जिनका अवश्यही पालन करना चाहिये उन पूर्वोक्त पडावश्यकोंका जो साधु निरंतर पालन करता है, क्षुधापिपासा आदि बाईस परीषहोंका सहन करता और उत्तर गुण - आपनादिकों अथवा विशिष्ट संयमों या आगे के गुणस्थानों में सोत्साह प्रवृत्ति रखता है, एवं जिनको तप करते हुए अपने से अधिक दिन हो गये हैं उन तपस्वियोंकी सेवा करता और स्वयं भी अनशनादिक तपका पालन करता है, तथा जो साधु अपनेसे तप करनेमें न्यून हैं उनकी अवहेलना -अवज्ञा नहीं करता, वही तपस्वी तपो विनयको प्राप्त हो सकता है ।
भावार्थ- पूर्वोक्त आवश्यकोंके पालन करने आदिको ही तपोविनय कहते हैं ।
विनय भावनाका फल बताते हैं:
ज्ञानलाभार्थमाचारविशुद्धयर्थं शिवार्थिभिः ।
आराधनादिसंसिद्ध्यै कार्यं विनयभावनम् ॥ ७६ ॥
जो मुमुक्षु हैं उनको ज्ञानका लाभ करनेकेलिये तथा दर्शनाचार ज्ञानाचार चारित्राचार तपाचार और विर्याचा इन पांच आचारोंको शुद्ध-निर्मल बनानेकेलिये, एवं पूर्वोक्त सम्यक्त्वादि चार आराधना प्रभृति और भी अनेक गुणों को भले प्रकार सिद्ध करनेकेलिये इस विनयतपमें बार बार प्रवृत्त होना चाहिये ।
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घर्म ०
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