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अनगार
स्यात् कषायहृषीकाणां विनीतेविनयोथवा।
रत्नत्रये तद्वति च यथायोग्यमनुग्रहः ॥ ६॥ विहित कर्ममें प्रवृत्ति करनेसे तथा क्रोधादिक कषाय और स्पर्शनादिक इन्द्रियोंका सर्वथा निरोध करने से विनय प्रकट हुआ करता है। अथवा सम्यग्दर्शनादिकखरूप रत्नत्रय और उसके धारण करनेवाले पुरुषोंके यथोचित उपकार करनेको विनय कहते हैं।
विनयशब्दकी निरुक्ति दिखाते हुए उसके फलको प्रकट करते हैं और इस बातका उपदेश देते हैं कि विनयका पालन अवश्य ही करना चाहिये:
यद्विनयत्यपनयति च कर्मासत्तं निराहुरिह विनयम् ।
शिक्षायाः फलमखिलक्षेमफलश्चेत्ययं कृत्यः ॥ ११ ॥ विनय शब्द के "दूर करना," और " विशेषरूपसे प्राप्त कराना" इस तरह दोनो ही अर्थ होते हैं। अत एव मोक्षके प्रकरणमें जो सम्पूर्ण अप्रशस्त कर्मों को दूर करता है, अथवा जो स्वर्गादिक विशिष्ट अभ्युदयोंको प्राप्त कराता है उसको विनय कहते हैं । जिनवचनके ज्ञानको प्राप्त करनेका फल यही है-जिनागमकी शिक्षा विनयरूप साध्यको सिद्ध करनेकेलिये ही प्राप्त की जाती है । तथा सम्पूर्ण कल्याणोंकी प्राप्ति भी इस विनयके द्वारा ही हो सकती है । अत एव मुमुक्षुओंको इसका पालन अवश्य ही करना चाहिये । समस्त विशिष्ट अभीष्ट गुणोंका एकमात्र साधन विनय ही है। इसी बातको प्रकट करते हैं :
सारं सुमानुषत्वेऽर्हद्रूपसंपदिहाहती । शिक्षास्यां विनयः सम्यगस्मिन् काम्याः सतां गुणाः ॥ ६२ ॥
अध्याय
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