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अनगार
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अध्याय
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और रहता है, तथा उतने ही फलसे बाल- अपनेसे छोटे भी मुनियोंकी बन्दना करता है; किन्तु गुरु उसको प्रतिवन्दना न करके ही भले प्रकार उसका आलोचन करते हैं; शेष लोगों में वह मौनव्रतको धारण करता और अपनी पीछfor उल्टी रखता है । उसको जघन्यतया पांच पांच उपवास और उत्कृष्टतया छह महिनेका उपवास करना चाहिये। दोनोंकी उत्कृष्ट अवधि बारह वर्षकी मानी गई है ।
यदि पूर्वोक्त दोषों को ही साधु दर्पसे करे तो उसको परगणोपस्थान नामका प्रायश्चित्त दिया जाता है । इसकी विधि इस प्रकार से है कि, आचार्य उसके आलोचनको सुनकर विना प्रायश्चित्त दिये ही दूसरे आचार्य के पास उसे भेज देते हैं। इसी तरह दूसरे आचार्य तीसरेके पास मंजदेते हैं और तीसरे चौथेके पास भेजते हैं । इस प्रकार सातवे आचार्य के पास तक उसको भेजा जाता है। इसके बाद वहांसे उसको उसी प्रकार वापिस लौटाया जाता है। लौटते लौटते जब वह पहले ही आचार्य के पास आजाता तब वे पहले ही आचार्य उसको प्रायश्चित्त देते हैं और उससे उसका पालन कराते हैं।
जो तीर्थंकर गणधर आचार्य प्रवचन अथवा संघ आदिकी आसादना करता है, अथवा राजाके विरुद्ध आचरण करनेवाला है, राजाके अनभिमत मंत्री आदिको दीक्षा देनेवाला है, राजकुलकी वनिताओ अथवा राजाङ्गनाओं या कुलाङ्गनाओं का सेवन करता है, तथा इसी तरहके अन्य भी अपराध करके धर्मको दूषित करता है, उसको पारश्चिक प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसकी विधि इस प्रकार है कि चातुर्वण्यं मुनिसंघ इकट्ठा होकर उसको बुलाता है और कहता है कि " यह महापापी पातकी समयबाह्य और अवन्ध है " इस तरह की घोषणा करके अनुपस्थान प्रायश्चित्त देकर उसको देश से निकाल देता है। और वह भी अपने धर्म से रहित क्षेत्र में रहकर आचार्य के दिये हुए प्रायश्चितका पालन करता है 1
प्रायश्चित दशवें मेद श्रद्धानका स्वरूप बताते हैं: गत्वा स्थितस्य मिथ्यात्वं यदीक्षाग्राहणं पुनः । तच्छ्रद्धानमिति ख्यातमुपस्थापनमित्यपि ॥ ५७ ॥
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