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अनगार
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अध्याय
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दंसणणाणे विणओ चरित्त तव ओवचारिओ विणओ । पंचविहो खलु विणओ पंचमगइणायगो भणिओ |
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इनमें से क्रमके अनुसार पहले सम्यक्त्वविनयका स्वरूप बताते हैं:दर्शनविनयः शङ्काद्यसन्निधिः सोपगृहनादिविधि: । भक्त्यचविणवर्णहृत्य नासादना जिनादिषु च ॥ ६५ ॥
सम्यग्दर्शनके शंका कांक्षा विचिकित्सा अन्यदृष्टिप्रशंसा और अनायतनसेवारूप मलोंके दूर करनेको, तथा उपगूहन स्थितीकरण वात्सल्य और प्रभावनारूप गुणोंसे उसके युक्त करनेको, एवं अहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय आदिकी भक्ति अर्चा वर्णना आदि करनेको दर्शनविनय कहते हैं ।
अरिहंतादिकोंके गुणोंमें अनुराग रखनेको भक्ति कहते हैं। द्रव्य अथवा भावसे उनकी पूजा करने को अर्चा कहते हैं । विद्वानोंकी सभा युक्तिवलसे उनके यशोविस्तार करनेको वर्ण अथवा वर्णना कहते हैं। माहात्म्य का समर्थन करके अद्भूत दोषों के उद्भावनका नाश करना इसको अवर्णहृति कहते हैं । इसी तरह अवज्ञाके दूर क रनेको अर्थात् उनमें आदरभाव प्रकट करनेको अनासादना कहते हैं।
भावार्थ- सम्यग्दर्शन के निर्मल और सगुण बनानेको तथा अरिहंत सिद्ध चैत्य सुदेव धर्म साधुवर्ग आचार्य उपाध्याय प्रवचन और दर्शन इनकी उपर्युक्त भक्ति पूजा आदि करनेको दर्शनविनय कहते हैं।
दर्शनविनय और दर्शनाचारमें क्या अन्तर है ? इसका उत्तर देते हैं:
दोषोच्छेदे गुणाधाने यतो हि विनयो दृशि । दृगाचारस्तु तत्त्वार्थरुचौ यत्नो मलात्यये ॥ ६६ ॥
धर्म ०
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