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अनगार
ऐसा समझकर और ऊपर लिखे अनुसार जो साधु चारो ही महाविकृतियोंका परित्याग करदेता है वही शरीरको कुश करते हुए इस परित्याग तपका विशेष रूपसे अभ्यास कर सकता है। इसलिये जो ममक्ष हैं उन्हें इनका त्याग करके इस तपमें विशेष अभ्यास करना ही चाहिये। क्योंकि इसका थोडासा भी पालन कल्याण के लिये ही होगा। वह दृक्षित विषकी तरह रंचमात्र भी विकार पैदा नहीं कर सकता।
क्रमप्राप्त विविक्तशय्यासन तपका लक्षण और फल बताते हैं:--
६.
विजन्तुविहिताबलाद्याविषये मनोविक्रिया,निमित्तरहिते रतिं ददाति शून्यसद्मादिके । स्मृतं शयनमासनाद्यथ विविक्तशय्यासनं ,
तपोर्तिहतिवर्णिताश्रुतसमाधिसंसिद्धये ॥ ३०॥ पहले पिण्डशुद्धिके प्रकरणमें जो उद्गमादिक दोष बताये हैं उनसे रहित, और जहांपर स्त्री पशु नपुसंक गृहस्थ तथा क्षुद्र जीवोंका संचार नहीं पाया जाता, जो-मनमें विकार उत्पन्न करनेवाले-जिनसे अनेक प्रकारका संकल्प विकल्प उत्पन्न हो सकता है-ऐसे ए.ब्द-कोलाहलादिकसे रहित है, जहाँपर मनकी विषयान्तरमें गमन करने की उत्सकता निवृत्त हो जाया करती है, और जहाँपर किसीका भी आहार विहार या संसर्ग नहीं पाया जाता ऐसे ए. कान्त स्थानमें अनेक प्रकारकी पीडाओंका परिहार करनेकेलिये अथवा ब्रह्मचर्यका पालन और शास्त्रोंका विचार तथा उत्तम ध्यानको भले प्रकार सिद्ध करनेके लिये शयन और आसन-उठने बैठने या खडे होने आदिको आचार्य वि. विक्त शय्यासन नामका तप कहते हैं।
इस तपका पालन करनेवाला साधु असाधु लोकोंके संसर्ग संभाषण आदिसे होनेवाले दोषों या संक्तशादि | भावोंसे युक्त नहीं हो सकता । अत एव विविक्तशय्यासनके इस महान् फलको प्रकट करते हैं:
अध्याय