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अनगार
७-पक्षादिक अतीचारोंकी शुद्धिके समय जहाँपर बहुतसे लोगोंका शब्द हो रहा हो वहांपर उस कोलाहलमें ही गुरुके सामने अपने दोष कथन करनेको शब्दाकुल दोष कहते हैं ।
८-अपने गुरुके दिये हुए प्रायाश्चत्तका दूसरे भी उस विषयके दक्ष व्यक्तियोंसे चर्चा कर पालन करनेको बहुजन दोष कहते हैं।
९-अपनेसे ज्ञान वा संयममें जो हीन है उससे प्रायश्चित्त ग्रहण करने को अव्यक्त दोष कहते हैं। १०--अपने समान-अपराधी-पार्श्वस्थसे प्रायश्चित्त ग्रहण करनेको तत्सेवित दोष कहते हैं।
इस प्रकार आलोचनके दश दोष बताये हैं। इन दोषोंको छोड कर ही गुरुके सामने अपने दोषोंका आलोचन करना चाहिये । क्योंकि इस तरहके आलोचनके विना किया हुआ महान् भी तप संवरकी सहवर्तिनी निर्जराका कारण नहीं हो सकता । किंतु केवल आलोचन ही कार्यकारी है ऐसा भी न समझना चाहिये। क्योंकि आलोचन करनेपर भी अन्य विहित विधियोंका आचरण न करनेवाला साधु सर्वथा दोषोंसे रहित नहीं हो सकता । अत एव सर्वदा दोनों ही कामोंका करना आवश्यक है-आलोचन भी करना चाहिये और गुरुनिरूपित उचित आचरणका पालन भी करना चाहिये । इसी बातकी शिक्षा देते हैं:--
सामौषधवन्महदपि न तपोऽनालोचनं गुणाय भवेत् । मन्त्रवदालोचनमपि कृत्वा नो विजयते विधिमकुर्वन् ॥ १५॥
मन्त्रवदाला
जिस प्रकार विना विचार किये ही दी हुई सामदोषसे युक्त महान् भी औषध आरोग्यके करनेवाली नहीं हो सकती उसी प्रकार उपर्युक्त आलोचनके विना किया हुआ महान् भी तप आत्माके लिये गणकारी नहीं हो सकता। क्योंकि अनालोचित तपसे संवर और निर्जरा दोनो नहीं हो सकते । इसी तरह मन्त्र के समान आलो. चनको करके भी विहित आचरणका अनुष्ठान न करनेवाला भी तपखी दोषोंका विजेता नहीं बन सकता ।
कार्य आरंभ करने के उपायका गुप्त रूपसे विचार करना इसको मन्त्र कहते हैं । शत्रुओंके द्वारा अपना वि.
अध्याय