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अनगार
और जिस तरहसे अपराध बनगया हो उसको उसी समय और उसी जगह तथा उसी तरह प्रकाशित करनेको । विशेष आलोचन कहते हैं।
जिसने अपने व्रतादिकको सर्वात्मना भंग करदिया है उसको दश दोष रहित औधी आलोचना करना चाहिये । सामान्य आलोचनको औघो कहते है।
आलोचन करते समय जिन दश दोषों को छोडना चाहिये उनका लक्षण इस प्रकार है--
१-आचार्य महान् प्रायश्चित न दें इस भय और शंकासे उपकरण आदि देकर अथवा किसी अन्य उपायसे उनको थोडा प्रायश्चित्त देने के लिये अपने अनुकूल करनेका नाम आकम्पित दोष है ।
२--ार्थना करनेपर गुरु थोडासा ही प्रायश्चित्त देकर मुझपर अवश्य ही अनुग्रह करेंगे इस बातको अनु. मानसे जानने के बाद " उन वीरपुरुषोंको धन्य है जो कि उत्कृष्ट तप किया करते हैं या कर सकते हैं " इस तरह
से तपाशुर पुरुषोंकी स्तुति करके तपक विषयमें अपनी अशक्ति जाहिर कर अपने अपराध के प्रकाशित करनेको | अनुमापित दोष कहते हैं।
३-यदि अपने अपराधको किसीने देखलिया तब तो गुरुके समक्ष कह दिया, अन्यथा नहीं। इस तरह दूसरेके द्वारा देखे हुए ही दोष के प्रकाशित करने को दृष्ट दोष कहते हैं।
-गुरुके सामने छोटे छोटे अपराधों को तो छिपा लेना और केवल बडे बडे ही अपराधोंको जाहिर करना इसको बादर दोष कहते हैं।
५-स्थूल दोषों को छिपाकर केवल सूक्ष्म दोषोंको ही गुरुके सम्मुख निरूपण करना इसको मूक्ष्म दोष कहते हैं।
६-अपने दोषके उद्देशसे गुरुसे यह पूछना कि ऐसा अपराध बन जानेपर, क्या प्रायश्चित्त होना चाहिये ? किन्तु अपने दोषको जाहिर न करना। और उत्तरमें गुरुसे प्रायश्चित्त मालुम होजानेपर उसका चुपकेसे अनुष्ठान करलेना इसको छन्न दोष कहते हैं ।
अध्याय