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अनगार
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अध्याय
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यत्तद्विभजनं साधोः स विवेकः सतां मतः ॥ ४९ ॥
आपस में मिले हुए अथवा संमूर्च्छित अन्नादिकमें जो ऐसे दोष हों जिनका कि पृथकरण न हो सकता हो तो उस अवस्थामें उस अन्नपान या उपकरणादिके छोडदेने को विवेक कहते हैं ।
प्रकारान्तरसे इसीका लक्षण बताते हैं:
विस्मृत्य ग्रहणेऽप्रासोग्रहणे वाऽपरस्य वा ।
प्रत्याख्यातस्य संस्मृत्य विवेको वा विसर्जनम् ॥ ५०॥
यदि कोई सचित्त वस्तु भूलसे ग्रहण करने करानेमें आजाय तो उसके छोडदेने को विवेक कहते हैं । अथवा कोई वस्तु प्रासु तो है पर छोडी हुई है ऐसी वस्तु भी ग्रहण होजानेपर भले प्रकार प्रतिग्रहपूर्वक याद करके उसके छोड देने को विवेक कहते हैं। जैसा कि कहा भी है कि
“ शक्तिको न छिपाकर और प्रयत्नपूर्वक छोडते हुए भी कदाचित् किसी कारण से यदि अप्रासुक वस्तु ग्रहण करने या कराने में आजाय, अथवा प्रासुक किंतु प्रत्याख्यात वस्तु भूलसे ग्रहण करनेमें आजाय तो याद करके उस वस्तु के छोडनेको विवेक कहते हैं। " इसके सिवाय किसी किसीने विवेकका अर्थ इस प्रकार बताया हैकि—“ शुद्ध भी वस्तु में अशुद्धताका संदेह अथवा विपर्यास हो जानेपर यद्वा अशुद्ध वस्तु में शुद्धताका निश्चय होजा नेपर, या छोडी हुई प्रासुक वस्तु, पात्र अथवा मुखमें प्राप्त हो जाय, यद्वा जिस वस्तुके ग्रहण करनेपर कषायादिक उत्पन्न होते हो, उन सम्मर्ण वस्तुओं के परित्यागको विवेक कहते हैं ।
क्रमप्राप्त व्युत्सर्ग प्रायश्चित्तका स्वरूप बताते हैं:स व्युत्सर्गे मलोत्सर्गाद्यती चारेवलम्ब्य सत् । ध्यानमन्तर्मुहूतोंद कायोत्सर्गेण या स्थितिः ॥ ५१ ॥
RA ALL GEASSSSSSOM RATED ASSASSINICAL
धर्म ०
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