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अनगार
निपात तो न हो और अपने कार्यकी सिद्धि हो ही जाय इसकेलिये पांच बातोंका विचार करना पडता है-पुरुष द्रव्य संपत्ति देश और काल । इस प्रकार पञ्चाङ्ग मंत्रको करके भी यदि कोई राजा अपने विहिताचरणमें प्रवृत्त न हो तो वह शत्रुओंपर विजयी नहीं हो सकता । इसी प्रकार आलोचन करके भी विधिविहिताचरणका अनुष्ठान न करनेवाला तपस्वी दोषरहित नहीं हो सकता।
भावार्थ-आलोचन और विहित आचरण करनेपरी साधु अभीष्ट सिद्ध कर सकता है, अन्यथा नहीं।
जिसका मन सद्गुरुओंके दिये हुए प्रायश्चित्तम लीन रहता है वह साधु अवश्य ही महती दीप्तिको प्राप्त करता है। यह बात दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हैं।
- यथादोषं यथाम्नायं दत्तं सद्गुरुणा वहन् ।
रहस्यमन्तर्भात्युच्चैः शुद्धादर्श इवाननम् ॥ १६ ॥ जिसके भीतर मुखका प्रतिबिंब पड़ा हुआ है ऐसा निर्मल दर्पण जिस प्रकार अतिशय शोभाको प्राप्त होता है उसी प्रकार जो तपस्वी आम्नायके अनुसार और जैसा दोष हो उसके अनुरूप सद्गुरुओंके दिये हुए प्रायश्चित्तको हृदयमें धारण करता है वह अतिशय दीप्तिको प्राप्त होता है। क्रमके अनुसार प्रायश्चित्तके दूसरे भेद-प्रतिक्रमणका स्वरूप बताते हैं:
मिथ्या मे दुष्कृतमिति प्रायोऽपायैर्निराकृतिः ।
कृतस्य संवेगवता प्रतिक्रमणमागसः॥१७॥ संसारसे भीरु और विषयभोगोंसे तथा शरीरादिकसे विरक्तचित्त साधुके द्वारा “मेरा सम्पूर्ण दुष्कृत्य मिथ्या हो जाय, मुझसे जो जो पाप बने हैं वे सब शान्त हो जाय" इस तरहके उपायोंसे अपने किये हुए अपराधोके निराकरण किये जानेको प्रतिक्रमण कहते हैं।
अध्याय