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अनगार
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अध्याय
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असभ्य जनसंवास दर्शनोत्थैर्न मध्यते । मोहानुरागविद्वेषैर्विविक्तवसतिं श्रितः ॥ ३१ ॥
जो साधु एकान्त स्थानमें निवास करता है वह असभ्य लोगोंके सहवास अवलोकन संभाषण आदिके द्वारा उत्पन्न होनेवाले मोह - अज्ञान अथवा ममत्व यद्वा अनुराग विद्वेष प्रभृति दोषों से दूषित अथवा त्रस्त नहीं हो सकता । जैसा कि कहा भी है कि:
कलहो रोळं झञ्झा व्यामोहः संकरो ममत्वं च । ध्यानाध्ययनविघातो नास्ति विविके मुनेर्वखतः ॥
असाधु लोगों के पास में रहनेसे किसी भी प्रकारका झगंडा टंटा. या कोलाहल नहीं हो सकता । न किसी प्रकारका परिणामोंमें संक्लेश ह्री हो सकता है। असंयमी पुरुषोंके साथ मिश्रण होते रहने से संयम के पालन में हानि पहुंचती है । और ध्यान तथा स्वाध्याय में बाधा उपस्थित होती है ।
बाह्य तपके छठे मेद कायक्लेशका लक्षण बताकर उसका पालन करनेके लिये साधुओं को प्रेरित करते हैं:ऊर्ध्वाद्ययनैः शवादिशयनवीरासनाद्यासनैः, स्थानैरकपदाग्रगामिभिरनिष्ठीवाग्रिमात्र ग्रहैः । यागैश्चातपनादिभिः प्रशमिना संतापनं यत्तनोः, कायक्लेशमिदं तपोऽर्युग्नतौ सद्ध्यानासिद्ध्यै भजेत् ॥ ३२ ॥
पीडा या दुःखों के आकर उपस्थित होनेपर भी प्रशस्त ध्यानसे विचलित न होकर उलटा उनको मले प्रकार सिद्ध करनेके लिये जिन क्रियाओंके करनेसे शरीरको क्लेश पहुंच सकता है उन क्रियाओंके करनेको काय
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