________________
वनमार
६८.
. जो साधु भगवान अन्त देवकी आज्ञाको दृढताके साथ धारण करता है । अर्थात् " अबतक जो मैं सं सारमें पडा हूं वह सर्वज्ञदेवकी आज्ञाका उल्लंघन करनेसे ही और भविष्यतमें भी यदि उसका उल्लंघन करूंगा तो इस दुरंत संसारमें ही पड़गा, अत एव संसारसे छूटनेकी इच्छा रखनेवाला मैं अब कमी भी इस आज्ञाका उल्लंघन न करूंगा।" इस तरहकी दृढतारख कर जो मुमुक्षु जिनेंद्रदेवकी, चारो महा विकृतियोंके सर्वथा परित्याग करनेकी, आ. ज्ञाको धारण करता है और इसीलिये जो तपमें एकाग्रता धारण करने का प्रेमी है, अथवा तप और समाधि दोनों ही की आकाक्षा रखता है, तथा पापरूप अथवा पापके कारणभूत संसारसे त्रस्त हो चुका है, उसे शरीरसल्लेखना का प्रारम्भ करनेके पूर्व ही चारो महाविकृतियोंका जीवनपर्यन्तके लिये परित्याग कर देना चाहिये ।
नवनीत मांस मद्य और मधु इन चार पदार्थोंको आगममें महाविकृति कहा है। क्योंकि ये हृदयमें महान् विकार उत्पन्न करनेवाले हैं । इसके सिवाय इनमें, जिस वर्णके ये पदार्थ होते हैं सर्वथा उसी वर्णके, अनन्तानन्त सम्मुर्छन जीव उत्पन्न हुआ करते हैं। नवनीतमें नवनीतके आकार और मांसमें मांसके आकारके अनन्तानन्त निगोदिया जीव हर अवस्थामें उत्पन्न हुआ करते और रहा करते हैं। इसी प्रकार मद्यादिकको भी हर समय ऐसे त्रसजीवोंसे व्याप्त ही समझना चाहिये। अत एव इन चारों ही पदार्थोके सेवनमें द्रव्यहिंसा अवश्यम्भाविनी है। और इतना ही नहीं किन्तु प्रत्येकमें विशिष्ट दोष भी पाये जाते हैं। यथा--
नवनीत-यह गृद्धिको उत्पन्न किया करता है। मांस--इन्द्रियोंमें दर्प उत्पन्न करनेवाला है। मद्य-इसके एकवार सेवन करते ही पुनः पुनः सेवन करनेकी अभिलाषा हुका करती है, अथवा अगम्या-वेश्या या परस्त्री आदिके साथ रमण करने में विशेष रूपसे प्रवृत्ति होने लगती है । मधु--इसके निमित्तसे असंयम उत्पन्न हुआ कर ता है। क्योंकि मधुके भक्षण करनेसे रसमें विशेष अनुराग हुआ करता है, इसलिये इन्द्रियासंयम, और उसमें उत्पन्न होने वाले या रहनेवाले जीवोंका घात होता है इसलिये प्राणासंयम भी हुआ करता है । इस प्रकार इन चारो ही महाविकृतियोंमें समस्त रूपसे या व्यस्तरूपसे महान् दोष पाये जाते हैं । अत एव अहिंसा धर्मका पालन करनेवाले भव्योंको इनका सर्वथा परिहार करना ही उचित है।
अध्याय