________________
अनगार
૬૮૪
अयन-इसके अनुसूर्य आदि अनेक भेद हैं । सूर्यके सन्मुख गमन करने को अनुसूर्य, सूर्यको पीठकी तरफ करके गमन करनेको प्रतिसूर्य, और वाम भागमें अथवा दक्षिण भागमें सूर्यको करके गमन करनेको तिर्यक्सूर्य, तथा शिरके ऊपर सूर्यको करके गमन करनेको ऊर्ध्वसूर्य कहते हैं । इसी प्रकार सूर्य जिधर जिधरको धूमता जाय उधर उधर ही घूमते जानेको सूर्यभ्रमगति और किसी ग्रामादिक या तीर्थादिक स्थानको जाकर यहाँसे पुनः लोटनेको गमनागमन कहते हैं । इसी तरह अयनके अनेक भेद होते हैं।
स्थान-इसके भी साधारादिक अनेक मेद हैं । कायोत्सर्ग धारण करने को स्थान कहते हैं। जिसमें स्तम्भादिकका आश्रय लेना पडे उसको साधार, जिसमें संक्रमण पाया जाय उसको सविचार, जो निश्चलरूपसे धारण किया जाय उसको ससनिरोध, जिसमें सम्पूर्ण शरीर छोडदिया जाय-ढीला डाल दिया जाय उसको विसृष्टाङ्ग, जिसमें दोनों पैर समान रक्खे जाय उसको समपाद, एक पैरसे खडे होनेको एकपाद, और जिस तरह गृद्ध पक्षी उजते समय अपने दोनो पंख ऊपरको करलेता है उसी प्रकार दोनों भुजाओंको ऊपर करके जो कायोत्सर्ग धारण किया जाता है उसको प्रसारितबाहु कायोत्सर्ग कहते हैं । इस तरह स्थानके भी अनेक भेद हैं।
आसन-जिसमें पिंडलियां और स्फिक् बराबर मिलजाय इस तरहसे बैठनेको समपर्यङ्कासन कहते हैं। इससे उल्टा असमपर्यङ्कासन हुआ करता है । जिस तरह गोके दुहनेके समय बैठते हैं उसी तरहसे ध्यानादिके लिये बैठनेको गोदोहासन कहते हैं। ऊपरको संकुटित होकर बैठनेका नाम उत्कुाटकासन है । मकरके मुखकी तरह दोनो पैरोंको बनाकर बैठनेका नाम मकरमुखासन है । हाथीकी सूंडकी तरह एक पैरको अथवा एक हाथको फैलाकर बैठने का नाम हस्तिहस्तासन है । जिस तरह गौ बैठती है उस तरहसे बैठने को मोशय्यासन कहते हैं । अर्धपर्षङ्कासन शब्दका अर्थ स्पष्ट ही है । दोनो जंघाओंको दूरवर्ती रख कर बैठनेक - नाम वीरासन है। जिसमें शरीर दण्डके समान आयत बनजाय इस तरहसे बैठनेको दण्डासन कहते हैं । इस प्रा कार आसनके अनेक भेद हैं।
शयन- शरीरको संकुचित करके सोनेको लगडशय्या कहते हैं । ऊपरको मुख करके सोनेका नाम उतानशय्या, और नीचेको मुख करके सोनेका नाम अवाक्शय्या है । शवकी तरह पडकर सोनेको शवशश्या कहते
अध्याय