________________
प्रनगार
६८६
बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वात् स्वसंवेद्यत्वतः परैः।
अनध्यासात्तपः प्रायश्चित्ताद्यभ्यन्तरं भवेत् ॥ ३३ ॥ प्रायश्चित्त प्रभृति तपोंमें बाह्य द्रव्यकी अपेक्षा नहीं है, उसमें मुख्यतया अन्तःकरणके परिणामोंका ही एम्बन्ध रहता है। इसके सिवाय इनका स्वयं ही संवेदन होता है, प्रायः करके इनका स्वरूप बाह्येन्द्रियों के द्वारा देखनेमें नहीं आसकता । तथा जिस प्रकार अनशनादिकोंको अनाहत लोग धारण किया करते हैं उस प्रकार वे प्रायश्चित्तादिको धारण नहीं करते । अत एव प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्य खाध्याय व्युत्सर्ग और ध्यान इन छह तपोंको अन्तरंग माना है ।
प्रायश्चित्तका लक्षण और उसके अवान्तर भेदोंकी संख्या बताते हैं:--
यत्कृत्याकरणे वाऽवर्जने च रजोर्जितम् ।।
सोतिचारोत्र तच्छुद्धिः प्रायश्चित्तं दशात्म तत् ॥ ३४ ॥ जिनका अवश्य ही पालन करना चाहिये ऐसे षडावश्यक प्रभृति कृत्योंका पालन न करनेसे और जो वर्ण्य हैं-जिनका कभी भी पालन न करना चाहिये ऐसे सादिक कर्मोंका त्याग न करनेसे अथवा उनका अनुष्ठान करनेसे जो पापका संचय होता है उसको अतिचार कहते हैं । इस अतिचार या पापकी शुद्धिका ही नाम प्रायश्चित्त है। इसके आलोचनादिक दश भेद हैं। जैसा कि आगे चलकर वर्णन करेंगे।
दो श्लोकों में प्रायश्चित्तके पालन करनेका प्रयोजन प्रकट करते हैं:
प्रमाददोषविच्छेदममर्यादाविवर्जनम् । भावप्रसादं निःशल्यमनवस्थाव्यपोहनम् ॥ ३५॥
६८६
अध्याय