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बनगार
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चतुर्डीराधनं दाढ्यं संयमस्यैवमादिकम् ।
सिसाधयिषताऽऽचयं प्रायश्चित्तं विपश्चिता ॥३॥ जो साधु चारित्रके पालन करने में असावधानताके कारण लगे हुए दोषों-अतीचारोंका परिहार करना चाहता है, और मर्यादाके उल्लंघनको छोड़ना चाहता है-चाहता है कि मुझसे प्रतिज्ञात व्रतोंका उल्लंघन किसी भी प्रकार न हो, जैसा कि कहा भी है कि:--
महातपस्तडागस्य संभृतस्य गुणाम्भसा ।
मर्यादापालिबन्धेऽल्पावप्युपैशिष्ट मा क्षतिम् ।। यह महान् तप एक प्रकारका बडा भारी तलाव है जो कि गुणरूपी जलसे भरा हुआ है । मर्यादा-इसके | किनारे-पार हैं। चाहें ये किनारे छोटेसे ही क्यों न हों, फिर भी उनको तोडनेका प्रयत्न न करना चाहिये ।
इसके सिवाय जो साधु परिणामोंसे कश्मलताको दूर कर अन्तरङ्ग भावोंमें प्रसत्ति उद्भूत करना चाहता है, तथा माया मिथ्या और निदान इन तीन शल्योंको-अन्तरंगके स्खलनरूप अतीचारोंको हटाना चाहता है, एवं अनवस्था-अपराधके भी ऊपर अपराध करते जानेका निराकरण करना चाहता है, सम्यग्दर्शनादिक चारो आराधनाओंको उद्योतित करना चाहता है, संयमके साधनमें दृढता उत्पन्न करना चाहता है, और इसी तरहके
और भी अनेक सुप्रयोजनोंको सिद्ध करना चाहता है उस विवेकी साधुको प्रायश्चित्त तपका अनुष्ठान अवश्य ही करना चाहिये।
प्रायश्चित्त शब्दका निरुक्तिसिद्ध अर्थ बताते हैं:प्रायो लोकस्तस्य चित्तं मनस्तच्छुद्धिकृस्त्रिया । प्राये तपसि वा चित्तं निश्चयस्तन्निरुच्यते ॥ ३७॥ .
अतीचारोंको
जानका निराक
रना चाहता है.
अध्याय