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सिद्ध होता है। क्योंकि दण्डक या आचारादि शास्त्रोंमें सांवत्सरिक अनशनका भी उल्लेख किया गया है।
उपवासका निरुक्तिपूर्वक लक्षण बताते हैं:
स्वार्थादुपेत्य शुद्धात्मन्यक्षाणां वसनाल्लयात् ।
उपवासोशनस्वाद्यखाद्यपेयविवर्जनम् ॥ १२॥ उपपूर्वक वस धातुसे उपवास बनता है । उपसर्गका अर्थ उपेत्य हटकर, तथा वस धातुका अर्थ निवास करना या लीन होना होता है । अत एव इन्द्रियोंक अपने अपने विषयोंसे हटकर शुद्ध आत्मस्वरूप में लीन होनेको उपवास कहते हैं।
भावार्थ-यों तो उपवासमें सभी इन्द्रियों के विषयोंका परित्याग होता है किन्तु रसनेन्द्रियके विषयके परित्यागकी मुख्यता रहती है। रसनाका विषय चार प्रकारका भोजन माना है-अशन स्वाद्य खाद्य और पेय । इन चारोंका विशेष लक्षण आगे चलकर करेंगे । अत एव यहां इतना ही समझना चाहिये कि इन चारो ही प्रकारके भोजनोंका परित्याग करके शेष सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयसे विरत हो आत्मस्वरूपमें लीन होनेको उपवास कहते हैं । जैसा कि कहा भी है कि:
उपेत्याक्षाणि सर्वाणि निवृत्तानि स्वकार्यतः ।
वसन्ति यत्र स प्रारुपवासोऽभिधीयते ।।
तथा इसी तरह किसी किसीने ऐसा भी कहा है कि१ अर्धवर्षान्त ' ऐसा शब्द श्लोकमें है। यहांपर अर्धशब्दको वर्षका विशेषण बनानेसे छह महीनेका उपवास अर्थ निकलता है। परंतु ' अर्ध और वर्ष ' ऐसा समास करनेसे वर्ष शब्दका अर्थ एक वर्षका उपवास भी हो जाता है । इस दूसरे अर्थके समय भी अर्ध शब्दके साथ वर्ष शब्द जोडनेकी आवश्यकता है, वह वर्षशब्द यहांपर लुत हुआ मानना चाहिये । एकशेष विषिसे एक वर्षशब्दका दो बार उपयोग होजाता है । ऐसा व्याकरणका आधार है।
अध्याय