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अनगार
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अध्यान
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भावना करनेसे हो सकता है। इसीलिये साधुओंको वैसा करनेका उपदेश देते हैं:
भुक्त्या लोकोपयोगाभ्यां रिक्तकोष्ठतया सतः । वेद्यस्योदीरणाश्चान्नसंज्ञामम्युद्यतीं जयेत् ॥ २० ॥
आहारसंज्ञा चार कारणोंसे उद्भूत हुवा करती है- भुक्त्युपयोग, रिक्तकोष्ट, और असातावेदनीय कर्मकी उदीरणा । जैसा कि कहा भी है कि:
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आहारदंसणेण य तस्सुवओगेण ओमकोठाए । वेदसुदीरणाए आहारे जायदे सण्णा ॥
अर्थात् आहारकी तरफ दृष्टि डालनेसे, उसकी तरफ अपने मनका उपयोग लगानेसे, पेट खाली होने पर और क्षुधा वेदनीयरूप असाता कर्मका उदय होनेपर आहारके विषय में अभिलाषा उत्पन्न हुआ करती है । साधुओंको इसका निग्रह करना चाहिये ।
भावार्थ, निग्रह करने के उपायका उल्लेख नहीं किया है। क्योंकि वह आहारसंज्ञाके कारणों का प्रदर्शन करनेसे स्वयं मालूम हो जाता है । यह नियम है कि जिन कारणोंसे जिस कार्यकी उत्पत्ति हुआ करती है उनके अभाव में अथवा उनके विरुद्ध कारण मिलनेपर वह कार्य नहीं हो सकता । इस सिद्धान्त के अनुसार यह बात भी स्वयं ही सिद्ध हो जाती है कि आहार दर्शनादिके विरुद्ध भावना करनेसे आहार संज्ञाका भी निग्रह हो सकता है । अतएव अनशन तपके अभिलाषी साधुओंको प्रतिपक्ष भावनाओंके द्वारा आहार संज्ञाका निग्रह करने में सदा प्रवृत्त रहना चाहिये ।
अनशन तपकी भावना करने में साधुओंको प्रवृत्त करते हैं:शुद्धस्वात्मरुचिस्तमीक्षितुमपक्षिप्याक्षवर्गं भजम्,
धर्म ०
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