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बनगार
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निष्ठासौष्ठवमङ्गानिममतया दुष्कर्मनिर्मूलनम् । श्रित्त्वाऽब्दानशनं श्रुतार्पितमनास्तिष्ठन् धृतिन्यकृत,
द्वन्द्वः कर्हि लभेय दोर्बलितुलाभित्यस्त्वनाश्वांस्तपन् ॥ २१ ॥ अत्यंत निर्मल निज चित्स्वरूपमें श्रद्धा और रुचिको धारण करके उस शुद्धात्मस्वरूपका साक्षात् अवलोकन करनेकेलिये जो साधु स्पर्शनादिक इंद्रियोंको अपने अपने विषयोंसे हटाकर चारित्रसौंदर्यका सेवन करते हुए शरीरसम्बन्धी ममत्वका परित्याग कर सम्पूर्ण अशुभ कर्मोंकी निर्जरा करने में कुशल सांवत्सरिक उपवासको स्वीकार करके श्रुतज्ञानके आराधन-अभ्यासमें ही अपने मनको लगाता हुआ आत्मस्वरूपके धारण करनेरूप धर्य अथवा प्रसात्तिके द्वारा समस्त परीषहाँको परास्त करदेता है और इस तरहकी भावना रखता है कि "वह दिन कब प्राप्त होगा कि मैं बाहुबलिकी समकक्षताको धारण कर सकूँगा" वही अनशन तपका करनेवाला समझा जा सकता है। इस प्रकार अनशन तपका व्याख्यान करके क्रमप्राप्त अवमौदर्य तपका लक्षण और फल बताते हैं:
ग्रासोऽश्रावि सहस्रतन्दुलमितो द्वात्रिंशदेतेऽशनं, पुंसो वैश्रसिकं स्त्रियो विचतुरास्तहानिरौचित्यतः । ग्रासं यावदथैकसिक्थमवमौदयं तपस्तच्चरे
धर्मावश्यकयोगधातुसमतानिद्राजयाद्याप्तये ॥ २२ ॥ स्वाभाविक भोजन पुरुषका बत्तीस ग्रास और स्त्रीका अहाईस ग्रासका होता है तथा एक ग्रासका प्रमाण एक हजार चांवलकी बराबर हुआ करता है। ऐसा आम्नायके अनुसार शिष्ट पुरुषोंसे सुनते हैं। इस प्रमाणमें यथा योग्य कम करके उसके ग्रहण करनेको अवमौदर्य कहते हैं । यह कमी एकोत्तर श्रेणीके द्वारा-एक दो तीन चार आदि ग्रास के क्रमसे एक ग्रासतक हो सकती है। अथवा भोजन ग्रहण करनेकी विधि पहले इस प्रकार बता चुके
अध्याय