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बनगार
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हैं कि पेट चार भागों से दो भागोंमें अन तथा एक भागमें जल भरना चाहिये और एक भाग वायु के लिये खाली बोडदेना चाहिये । इस प्रमाणमें कमी करके-चौथाई आदि भागका त्याग करके भोजन ग्रहण करनेको अवमौदर्य तप कहते हैं। इस तपके प्रसादसे उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्मकी और षडावश्यक कर्तव्योंकी तथा आतापनादि यदा समीचीन ध्यानादिरूप योगोंकी प्राप्ति अथवा सिद्धि हुआ करती है। वात पित्त कफरूप दोषोंकी विषमता नष्ट होकर समता उत्पन्न हुआ करती है। निद्रापर विजय प्राप्त होता और इन्द्रियां बलाढ्य होकर द्वेषी नहीं बन सकती। इसी तरह इस तपके और भी अनेक फल हैं जो कि मुमुक्षु साधुकेलिये आवश्यक हैं । अत एव तपस्वियोंको इस तपका पालन तथा अनुष्ठान अवश्य ही करते रहना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि:
धर्मावश्यकयोगेषु ज्ञानादावुपकारकृत् । दर्पहारीन्द्रियाणां च ज्ञेयमूनोदरं तपः ।। द्वात्रिंशाः कवलाः पुंस आहारस्तृप्तये भवेत् । अष्टाविंशतिरेवेष्टाः कवलाः किल योषितः । तस्मादेकोत्तरश्रेण्या यावत्कवलमात्रकम् । ऊनोदरं तपो खेतत्तद्भेदोपीदमिष्यते ॥ अधिक भोजन करनेसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंको प्रकट करते हैं:-- बहाशी चरति क्षमादिदशकं दृप्यन्ननावश्यका,-- न्यथूणान्यनुपालयत्यनुषजत्चन्द्रस्तमोऽभिद्रवन् । ध्यानाद्यर्हति नो समानयति नाप्यातापनादीन्वपुः,
शर्मासक्तमनास्तदर्थमनिशं तत्स्यान्मिताशी वशी ॥ २३ ॥ अवमौदर्यका फल ऊपर बता चुके हैं। उसके विरुद्ध जो व्यक्ति अधिक--उचित प्रमाणका अतिक्रमण
अध्याय
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