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बनगार
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तथा यथाक्षाणि वशे स्युरुत्पथं,
. न वानुधावन्त्यनुबद्धड़वशात् ॥९॥ शरीरके विना तप तथा और भी ऐसे ही धर्मोंका साधन नहीं हो सकता । अत एव आगममें ऐसा कहा है कि रत्नत्रयरूप धर्मका आद्य साधन शरीर है । इसी लिये साधुओंको भी भोजन पान शयन आदिके द्वारा इसके स्थिर रखनेका प्रयत्न करना चाहिये । किंतु इस बातको सदा लक्ष्यमें रखना चाहिये कि भोजनादिकमें प्रवृत्ति ऐसी और उतनी ही हो कि जिससे इन्द्रियां अपने ही अधीन बनी रहें । ऐसा न होना चाहिये कि अनादि कालकी वासनाके वशवर्ती होकर वे उन्मार्गकी तरफ भी दौडने लगें।
भावार्थ-साधुओंको भोजनमें प्रवृत्ति ऐसे मध्यम मार्गका आश्रय लेकर करनी चाहिये कि जिससे इन्द्रियां अपने अधीन भी बनी रहें और उन्मार्गमें भी प्रवृत न हों।
अभिमत और स्वादु भोजनके दोष प्रकट करते हैं:
इष्टमृष्टोत्कटरसैराहारैरुद्भटीकृताः ।
यथेष्टमिन्द्रियभटा भ्रमयति बहिर्मनः ॥ १० ॥ इन इन्द्रियरूपी सुभटोंको यदि अभीष्ट और स्वादु तथा उत्कट रससे पूर्ण-ताजी बने हुए भोननोंके द्वारा उद्भट-दुर्दम बना दिया जाय तो ये अपनी इच्छानुसार-जो जो इन्हें इष्ट हों उन सभी बाह्य पदार्थों में मनको प्रमाने लगते हैं । भावार्थ-इष्ट सरस और स्वादु भोजनके निमित्तसे इन्द्रिय और मन स्वाधीन नहीं रह सकते।
अनशनका लक्षण और उसके भेद बताते हैं:--
चतुर्थाद्यर्धवर्षान्त उपवासोथवाऽऽमृतेः । सकृदभुक्तिश्च मुम्यधं तपोनशनमिप्यते ॥ ११॥
बध्याय
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