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अनगार
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काँका क्षय करनेके उद्देशसे भोजनके परित्यागको अनशन नामका तप कहते हैं । यह दो प्रकारका होता है--एक तो सकृद्भुक्ति-प्रोषध, दुसरा उपवास । दिनमें एक वार भोजन करनको प्रोषध और सर्वथा भोजनके परिहारको उपवास कहते हैं। यह दो प्रकारका माना है-अवधूतकाल और अनरधृतकाल । अवधूतकालके चतुर्थसे लेकर पाण्मासिकतक अनेक भेद हैं। जो मरणपर्यन्त के लिये उपवास धारण किया जाता है उसको अनवधृतकाल कहते हैं।
भावार्थ--एक दिनकी दो भुक्ति समझी जाती है। इसीलिये प्रोषधोपवासका दूसरा नाम चतुर्थोपवास है क्योंकि धारण और पारण के दिनकी एक एक भुक्ति और उपवास के दिनकी दो भुक्ति इस तरह मिलाकर चार भुक्तिका उसमें परित्याग किया जाता है । इस तरहसे भोजनके चार समयों में चतुर्विध आहारके परित्याग का नाम आगममें रूढिस चतुर्थ ऐसा प्रसिद्ध है। यदि धारण और पारणके मध्यमें दो उपवास किये जाय तो उसका नाम षष्ठ और तीन उपवास किये जाय तो अष्टम, चार उपवास किये जाय तो दशम तथा पांच उपवास किये जाय तो द्वादश होता है। इसी तरह अर्धवन्ति भेद समझने चाहिये । लगातार छह महीनेके उपवास करने को पाण्मासिक अथवा अर्धवार्षिक उपवास कहते हैं । उपवास और क्षपण ये पर्यायवाचक शब्द हैं । चतुर्थसे लेकर पाण्मासिक तकमें कालका प्रमाण नियमित रहता है । अतएव ये सब अवधृतकाल नामक अनशन तपके भेद होते हैं। जिसमें कालका प्रमाण नियमित नहीं रहता ऐसे मरणपर्यन्त के लिये किये गये उपवासको अनवधृतकाल कहते हैं।
नञ् शेब्दक निषेध और ईषत् इस तरह दोनों ही अर्थ होते हैं । अतएव अनशनके भी दो अर्थ हो जाते हैं-एक तो भोजनका सर्वथा अभाव, दूसरा कुछ भोजन । पहले अर्थकी अपेक्षासे अनशन या उपवासका उस्कृष्ट भेद और दूसरे अर्थकी अपेक्षासे उसका मध्यम तथा जघन्य भेद समझा जाता है। अतएव इस श्लोकमें समुच्चयार्थक चशब्दका पाठ किया है जिससे कि उत्कृष्टके साथ साथ मध्यम और जघन्य भेदका भी संग्रह कर लिया जाय।
'अर्धवर्षान्त , इस शब्दमें एक वर्षशब्दका लोप समझना चाहिये । ऐसा होनेसे वार्षिक उपवास भी
अध्याय
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