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अमार
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अध्याय
बाह्यं वल्भाद्यपेक्षत्वात्परप्रत्यक्षभावतः । परदर्शनि पाषण्डिगेहि कार्यत्वतश्च तत् ॥ ६ ॥
अनशनादि तपोंको बाह्य कहने में तीन कारण हैं। एक तो यह कि इनके करनेमें बाह्य द्रव्यकी अपेक्षा रहती है । अनशनमें भोजनके छोडने की, अवमौदर्य में अल्प भोजन की, वृत्तिपरिसंख्यानमें बाहिर दृष्टिसे दीख सकने योग्य किसी भी वस्तु के आश्रयसे नियम करनेकी, इसी प्रकार रसपरित्यागादिक में भी रसादिक बाह्य वस्तुओंकी आवश्यकता पडती है । दूसरा कारण यह भी है कि ये दूसरे लोगोंको दीखते हैं । स्वसंघके और परसंघके सभी लो
को यह तो साक्षात् ही मालूम हो जाता है कि इन्होंने आज भोजन किया है अथवा नहीं किया। तीसरा कारण यह भी है कि इन अनशनादि तपोंको केवल निर्बंध साधु ही नहीं किया करते, और लोग भी किया करते हैं । बौद्ध प्रभृति जैनेतर धर्मो के अनुयायी और कापालिक प्रभृति पाषण्डी तथा इतर गृहस्थ लोग भी उपवासादिक किया करते हैं। अत एव साधारणतया बाह्य लोगोंका कार्य होनेसे भी इन तपोंको बाह्य कह सकते हैं।
बाह्य तपका फल बताते हैं:--
कर्माङ्गतेजोरागाशाहानिध्यानादिसंयमाः । दुःखक्षमासुखासङ्गब्रह्मोद्योताश्च तत्फलम् ॥ ७ ॥
अनशनादि तपके करनेसे ज्ञानावरणादिक कर्म और शरीरका तेज क्षीण होता है । अथवा कर्मों के कारण - भृत हिंसादिककी और शुक्रकी हानि होती है। इसके सिवाय रागद्वेषादिक कपाय और विषयभोगों की आशाका अपकर्षण होता है । इस तरहसे बाह्य तपके द्वारा अनेक दोषोंकी हानि होती है । केवल हानि ही हानि होती है यह बात नहीं है किन्तु ध्यान स्वाध्याय आरोग्य मार्गप्रभावना और कषाय- मदमात्सर्यादिका मंथन तथा परप्रत्ययकरण दयादिक उपकार और तीर्थाीयतनोंकी स्थापना इत्यादि अनेक उत्तम फलोंकी और संयमकी सिद्धि भी होती है। जैसा कि कहा भी है कि: ---
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