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अनगार
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अध्याय
नहीं पाते और जो वस्त्रादि परिग्रहोंसे रहित तथा कटक कुण्डलादि भूषणोंसे रिक्त एवं संसार के लिये पूज्य नग्नस्वरूप रहने की प्रतिज्ञामें स्थिर रहता है उनीको नग्नपरीषदका विजेता समझना चाहिये ।
अरति परीष के जीतनेका उपाय बताते हैं:
लोकापवादभय सतरक्षणाक्ष, रोधक्षुदादिभिरसह्यमुदीर्यमाणाम् । स्वात्मोन्मुखो धृतिविशेषहृतेन्द्रियार्थ, - तृष्णः शृणात्वरतिमाश्रितसंयमश्रीः ॥ ९५ ॥
इन्द्रियों के विषयों लगी हुई तृष्णाको विशिष्ट संतोष के द्वारा दूर करके ओर निज आत्मस्वरूप की तरफ उन्मुख होकर संयम – संपत्ति के धारक - रतिका स्मरण दिलानेवालीं देखी सुनी अथवा स्वयं अनुभवमें आई हुई कथाओंके श्रवणका परित्याग करनेवाले साधुओं को लोकापवादका मय सद्वतों की रक्षा तथा इन्द्रियनिरोध और क्षुधादि कारणों के द्वारा दुःसह रूपसे उद्भूत हुई अरति - किसी भी एक शयन अथवा आसनादिकमें अवस्थित न रहने का परित्याग करना चाहिये ।
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यहांपर यदि कोई कहे कि चक्षुरादिक सभी इन्द्रियां अरतिकी कारण हैं अतएव अरविका पृथक् ग्रहण करना अयुक्त है, तो वह ठीक नहीं है। क्योंकि कदाचित् क्षुधादिकी बाधा न होनेपर भी केवल कर्मोदय के निमित्तसे भी संयममें अरति हो जाया करती है।
स्त्रीपरीषदको सहनेका उपदेश देते हैं:
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रागाद्युपप्लुतमतिं युवतीं विचित्रां, श्चित्तं विकर्तुमनुकूलाविकूलभावान् ।
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