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थनगार
आवश्यकादिविधिग्वेदनुदे गुहादौ,..
• व्यस्रापलादिशबले शववच्छयीत ॥ ९९ ॥ स्वाध्याय प्रभृति आवश्यक कर्मों के कग्नेसे उत्पन्न हुए खेदका निराकरण करनेकेलिये जो साधु विषादरहित होकर " यह स्थान व्याघ्रादि हिंस्र जंतुओंसे व्याप्त है, यहांसे जल्दी निकल चलना ही अच्छा है, देखेंकब रात खतम होती है," इस तरह की भयपूर्ण आकुलतासे रहित होकर नियम- एकपार्श्वसे अथवा दण्डवत लम्बे होकर सोनेकी प्रतिज्ञासे चलायमान न होता हुआ तिकोने गठीले आदि कंकड पत्थरोंसे व्याप्त पर्वतकी गुहा कंदरा आदिमें शवकी तरह निश्चेष्ट होकर शयन करता है और पूर्वानुभूव हंसतूलशय्या अथवा आस्तरणादिका स्मरण नहीं करता उस साधुको शय्यापरीषहका विजयी समझना चाहिये ।
आक्रोश परीषह जीतनेवालेका स्वरूप बतातें हैं:
मिथ्यादृशश्चण्डदुरुक्तिकाण्डैः, प्रावध्यतोऽरूंषि मृधं निरोडुम् । क्षमोपि यः क्षाम्यति पापपार्क,
ध्यायन् स्त्रमाकोशसहिष्णुरेषः ॥१०॥ मिथ्यादशियोंके मर्मवेधी अत्यंत अनिष्ट तथा प्रचण्ड दुर्वचनरूपी बाणोंका शीघ्र ही प्रतीकार करनेमें समर्थ रहते हुए भी जो साधु अपने पूर्वसचित पाप कर्मके उदयका स्मरण करके उनपर क्षमा करदेता है उसीको आक्रोश परीषहका विजेता समझना चाहिये।
वध परीषहके विजयका स्वरूप बताते हैं:
अध्याय